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________________ मूलाचार प्रदीप ( १३३ ) [ तृतीय अधिकार रत्नत्रय वेवें आदि कहना भक्ति और उनके गुणों के प्रति होनेवाले अनुरागसे भरी हुई प्रार्थना है और श्रेष्ठ धर्मको पालन करने से भक्त पुरुषों की वह प्रार्थना सफल ही होती है ॥८१७।। भक्त लोगों के मनोरथ सब सिद्ध हो जाते हैंयतोभक्त्याहंता पुंसां शीयन्तेक्लेशराशयः । सर्व मनोरयासितिमिहामुन बजन्ति च ॥१८॥ अर्थ- इसका भी कारण यह है कि भगवान अरहंतदेव की भक्ति करने से मनुष्योंके समस्त क्लेशों का समूह नष्ट हो जाता है तथा इस लोक और परलोक दोनों लोकों के मनोरथ सब सिद्ध हो जाते हैं ॥१८॥ प्रभस्त अनुराग रत्नत्रय धर्मको करनेवाला है-- अर्हत्सुवोसदोषेष्वाचार्योपाध्यायसाधुषु । धर्मे रत्नत्रयेनयें जिनवाक्ये व मिषु ॥१६॥ यतो जायतेरागः स्वभावेनयो गुस्खोद्भवः। सप्रशस्तो मत.सविष्टिज्ञानादिधर्मकृत् ॥२०॥ अर्थ-वीतराग भगवान अरहतव में, प्राचार्य उपाध्याय साधुओं में, रत्नत्रय रूप सर्वोत्कृष्ट धर्म में, जिन वचनों में और धर्मात्माओं में उनके गुणों से उत्पन्न हुआ जो स्वाभाविक अनुराग है उसको सज्जन पुरुष प्रशस्त अनुराग कहते हैं वह प्रशस्त अनुराग सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप धर्मको उत्पन्न करनेवाला है । ।।८१९-२०॥ मस्वेति श्रीजिनायोमा तिरागावयोखिलाः । विश्वार्थसाधका निसं कर्तव्या भक्तिकः पराः ।। अर्थ-पही समझकर भक्त पुरुषों को समस्त अर्थों को सिद्धि करनेवाली भगवान जिनेन्द्रदेव को भक्ति और उनके गुणों में उत्कृष्ट अनुराग सदा करते रहना चाहिये ॥८२।। भगवान २४ तीर्थंकरों की स्तुति प्रतिदिन करनी चाहियेस्तवं फुवंतु तवस्तुविशतिजिनेशानाम् । तभ्युक्यसंसिद्ध्ये नित्यप्रति मुनीश्वराः ॥८२२।। अर्थ-इसलिये मुनिराजों को अपने समस्त कल्यामोंको सिद्धि करने के लिये भगवान चौबीसों तीर्थंकरों को स्तुति प्रतिदिन सवा करनी चाहिये ।।२२।। स्तुति करने की विधिप्रतिलेख्य घरांगावी पिचत्तशुद्धि विधाय । स्वकरी संपटो कृत्य स्थित्वा कृत्वा स्थिरो क्रमौ॥ शाजू चांतरितो शक्त्या चतुभिरंगुलमुदा । मधुरेण स्वरेणवं शुखध्यक्तामरवः ॥२४॥
SR No.090288
Book TitleMulachar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size14 MB
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