SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 80
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मूलाचार प्रदीप] [ प्रथम अधिकार ततोऽपमानमत्रय, वनबंधादर्थनम् । लभते स परवाहो, नरकं सप्तमं कुधी ।।२२।। विशिवेति न पश्यंति, कामिनी ब्रह्मचारिणः । क्यचिद् दृष्टिविषाह, मिवाखिलानर्थ कारिणीम् ।। अर्थ-श्रुत, शील, तप आदि के नष्ट हो जाने से, इस लोक में ही, उसका भारी अपमान होता है और वध बंधन के द्वारा वह भारी तिरस्कृत होता है तथा परलोक में उस मूर्ख को सातवां नरक प्राप्त होता है ॥२२१॥ यही समझकर ब्रह्मचारी पुरुषों को दृष्टि विष (जिसको देखने मात्र से विष चड़ जाय) ऐसे सर्प के समान समस्त अनर्थों को उत्पन्न करने वाली स्त्रियां कभी नहीं देखनी चाहिये ॥२२२॥ वे पुरुष ही धन्य हैंधग्यास्ते एच लोकेऽस्मिन्, या हा निर्मसंक्वचित् । स्वप्नेप्युपवितःस्त्रीभिः, न मोतं मलसन्निधौ ॥ ___ अर्थ-संसार में थे ही लोग धन्य हैं। जो स्त्रियों के द्वारा उपद्रव किये जाने पर भी, स्वप्न में भी अपने निर्मल ब्रह्मचर्यको कभी मलिन नहीं होने देते हैं ।।२२३।। शीलालकरिणा पादानमन्स्याशाविधायिनः । देवेशाः समराश्याहो, का कथा परमभुजाम् ॥ अर्थ-समस्त पृथ्वी पर आज्ञा करनेवाले, इन्द्र भी अपने अनुचर देवों के साथ, शील पालन करने वाले मनुष्यों के चरणों को नमस्कार करते हैं। फिर भला राजानों की तो बात ही क्या है । वे तो नमस्कार करते ही हैं ॥२२४॥ विशायेति जगत्सारं, शीलरत्नं सुदुलभम् । स्त्रीकटाक्षादि चौरेभ्यो, रक्षणोयं प्रयत्नतः ।।२२५॥ अर्थ-यही समझकर, तीनों लोकों में सारभूत और अत्यन्त दुर्लभ ऐसे इस शोल रत्न को प्रयत्न पूर्वक स्त्रियों के 'कटाक्ष आदि चोरों से' रक्षा करनी चाहिये ।।२२।। ब्रह्मचर्य व्रतको ५ भावनास्त्रीरूपमुखागार, विलासायनिरीक्षणम् । पूर्वानुमूतसनोग, रत्यादि स्मरणोभनम् ॥२२६।। स्त्रीश्रृंगारकथात्यागः, सरसानाद्यसेवनम् । कामिनीजनसंसक्त, वसति त्यजनं सदा ।।२२।। पंचेमा भावनाः शुद्धाः, ब्रह्मवतविशुद्धिदाः । न भोक्तव्या हुयो जातु, मुनिभित्र शुद्धये ।।२२८॥ अर्थ--(१) स्त्रियों के रूप, मुख, श्रृंगार, विलास आदि को नहीं देखना (२) पहले भोगे हुए भोग और रति क्रीड़ा प्रावि के स्मरण करने का भी त्याग कर
SR No.090288
Book TitleMulachar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy