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________________ मूलाधार प्रदीप ] ( १७३ ) { चतुर्थ अधिकार समस्त कषाय और समस्त अशुभ योगों का प्रयत्नपूर्वक शीघ्र ही प्रतिक्रमण करना चाहिये ।।६३-६४।। समस्त व्रतों को पालोचनासिद्धभक्त्यादिकं कृत्वा सन्मागियरादिकान् । कृतांजलिपुटः शुद्धो मायायामो विहाय च ।। शिष्यो व्रत विशुसयर्थ गुरुवेशानशालिने । पालोधयेत्समस्तान व्रतातिचारान् यथोड्रयान् ॥६६।। अर्थ-शिष्य मुनियों को पृथ्वी और अपने शरीर को पोछी से शुद्धकर तथा सिद्धभक्ति आदि पढ़कर दोनों हाथ जोड़कर मान तथा माया का त्यागकर अंतःकरणसे शुद्ध होकर प्रत्यंत ज्ञानवान ऐसे अपने गुरु के सामने अपने प्रतों को अत्यंत शुद्ध करने के लिये जैसे-जैसे उत्पन्न हुए हैं उसी तरह समस्त व्रतों के अतिचारों की आलोचना करनी चाहिये ॥६५-६६॥ __ अालोचना के भो ७ भेदप्राय देवसिक राविकमर्यापथनामकम् । पाक्षिकास्यं तथा चातुर्मासिकं ममतापहम् |६७११ सांवत्सरिकमामोत्तमार्थ चामशनोद्भवम् । सप्तमेवमिति प्रोक्त सतामालोचन जिनः ।।६।। अर्थ- भगवान जिनेन्द्र देव ने इस मालोचना के भी सात भेद बतलाये हैंपहली आलोचना देवसिक, दूसरी रात्रिक, तीसरी ईर्यापथ, चौथी पाक्षिक, पांचवों चातुर्मासिक, छठी बोषों को दूर करनेवाली सांवत्सरिक और सातवीं उत्तम अर्म को देनेवाली औपवासिक (उपवास से उत्पन्न होनेवाली) ॥६७-६८॥ बालक के समान गुरु के समक्ष सब पापों की मालोचना-- यद्धि किमित्कृतं कर्मकारितं चानुमोदितम् । वपुषा मनसा वाचा प्रतातिवारगोचरम् ।।६।। प्रकटं संघलोकानां प्राग्नं वा प्रमादनम् । सरसवं बालवापापं त्रिशुद्धघालोचपेशतिः ॥७०।। अर्थ-जिन कर्मों से व्रतों में दोष वा अतिचार लग जाय ऐसे कर्म जो मुनिराज मन-वचन-कायसे करते हैं पा कराते हैं वा अनुमोदना करते हैं, चाहे उन्होंने यह कार्य संघ वा लोगों के सामने किया हो चाहे छिपकर किया हो और चाहे प्रमाद से किया हो वह सब पाप उन मुनियोंको मन-वचन-कायकी शुद्धता पूर्णक चालकके समान गुरुसे कह देना चाहिये और फिर उनकी आलोचना करनी चाहिये ।।६९-७०।। दोषों को शत्रु के समान समझकर उनका निराकरण-- यस्मिन् क्षेत्रे च कालावो ग्यभावाश्रयेस यः । जातो व्रतायतीचारो मायां स्थस्वातदेवासः ।।
SR No.090288
Book TitleMulachar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size14 MB
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