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________________ र मूलाचार प्रदीप] ( १७२ ) [ चतुर्थ अधिकार अर्थ-पश्चात्तापके द्वारा तथा अक्षरों का उच्चारण कर जो सर्वथा किए हुए दोषोंका मन-वचन-कायसे निराकरण करना है उसको शुभ प्रतिक्रमण कहते हैं ॥५८।। द्रव्य प्रतिक्रमितव्य का स्वरूप-- सचित्ताचितमित्रं यत्रिधा द्रव्यमनेकधा । षा प्रतिक्रमितव्यतत्सर्व तदोषहायनः ॥५६॥ अर्थ-सचित्त, अचित्त और मिश्र के भेदसे द्रव्यके तीन भेद हैं अथवा द्रव्यके अनेक मेद हैं वे सब द्रव्य दोष दूर करते समय प्रतिक्रमितव्य कहलाते हैं ।।५६॥ क्षेत्र व काल प्रतिक्रम्य का स्वरूपसौघादिरम्यक्षेत्र कालो दिन निशाविकः । यः प्रतिकमितव्यः स तज्जातीचारशोधनः ॥६॥ अर्थ--राजभवन आवि मनोहर क्षेत्र तथा दिन रात प्रादि काल भी तज्जन्य (क्षेत्र वा कालसे उत्पन्न होनेवाले) अतिचारों को शुद्ध करने के लिये और मोक्ष प्राप्त करने के लिये प्रतिक्रमितव्य कहलाते हैं ॥६॥ मोक्ष प्राप्ति के लिये सदाकाल प्रतिक्रमणकाले कालेयवा नित्यं योगिभित्र तशुद्धये । भो प्रतिक्रमितव्यस्वदोष हान्य च मुक्तये ॥६१।। अर्थ-अथवा मुनियों को अपने दोष दूर करने के लिये और मोक्ष प्राप्त करने के लिये तथा प्रतों को शुद्ध रखने के लिये प्रत्येक समय प्रतिक्रमण करते रहना चाहिये अतएव उनके लिये सदा काल प्रतिक्रमितव्य है ।।६१॥ रागद्वेष अथवा मिथ्यात्व के प्राश्रित भावों का भी त्याग आवश्यक हैरागद्वेषाश्रितो भाचो मिथ्यात्वासंयमादिभारु। कषायबहलोपः प्रतिक्रमितव्यः एव सः ।।६ । अर्थ--जो भाव रागद्वेष के आश्रित है अथवा मिथ्यात्व असंयम के अश्चित है अथवा जो भाव अधिक कषाय विशिष्ट है वह भी प्रतिक्रमितव्य है उसका भी प्रतिक्रमण वा त्याग करना चाहिये ॥६२।। पांचों पाप, सब तरह का असंयम समस्त कषायादि त्याज्य हैंमिथ्यात्वपंचपापानां सर्वस्यासंयमस्य च । कवायारणा न सर्वेषां योगामामशुभात्मनाम् ।।६३।। प्रयत्नेन विधातव्यंप्रतिक्रमरणमंजसा । तज्जातिवातदोषाविनिराकरणशुद्धिभिः ॥६४।। अर्थ-मुनियों को मिथ्यात्व आदि से उत्पन्न होनेवाले दोषों को निराकरण करने और व्रतों को शुद्ध रखने के लिये मिथ्यात्व, पांचों पाप, सब तरह का असंयम,
SR No.090288
Book TitleMulachar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size14 MB
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