SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 403
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मूलाचार प्रदीप [ अष्टम अधिकार जन्ममृत्युजरोद्विग्नाभवाब्धिपातमीरवः । निविकारमनोनेत्रमुलाः सपिसिएकांकिताः ॥२३३१॥ लिंगशुद्धि निधायोचचेः प्रवर्तन्तेमहर्षयः । निर्ममा निरहंकाराधर्मशुक्लपरायणाः ॥२३३२।। अंगपूर्वामतःपूर्णस्वान्तः कर्ममलापहम् । जगद्धिकरं धर्मतीर्थ तीर्थकृर्तापरम् ।।२३३३।। भावयन्ति विशुद्धचाले भवाग्निदाहशान्तये । प्रस्मानान्यद्धितं श्रेष्ठं मत्वे तित्रिजगत्यपि ।।२३३४।। द्विषड्भेवेमहाघोरे लपस्युत्साहकारिणः । पंचाक्षशमंछायाः सर्वदानि ग्रहोचताः ॥२३३५।। समादिलक्षणःसाध्यं वशभिधर्ममुत्तमैः। पारिवाचरण शुद्धं निष्प्रमादाश्चरन्ति च ।।२३३६।। इत्याचं निमलन्यैिः शुद्धाचारान् भजन्ति ये । लिंगशुद्धिमतातेषांवृतार्हल्लिगयोगिनाम् ।।२३३७॥ अर्थ-जिन मुनियों के समस्त शरीर पर पसीने का वा पसीने में मिली हुई धूलि का मल लगा हुआ है, परन्तु जो कर्म मलसे सर्वथा दूर रहते हैं, जो अत्यन्त चतुर हैं, अत्यन्त तीव शीत वा उष्णता के संताप से जले हुए वृक्ष के समान हो रहे हैं, जो काम और भोग से सदा विरक्त रहते हैं, अपने शरीर का संस्कार कभी नहीं करते, जिन्होंने दिगम्बर मुद्रा धारण कर रखी है, जो धीर वीर हैं, समस्त परिग्रह से रहित हैं, जन्म-मरण और बुढ़ापे से जो अत्यन्त दुःखी हैं, जो संसाररूपी समुद्र में पड़ने से बहुत डरते हैं, जिनके नेत्र मन और मुख में कभी विकार उत्पन्न नहीं होता जो श्रेष्ठ पीछी धारण करते हैं, जो महा ऋषि हैं, जो लिंगशुद्धि को धारण कर ही सदा अपनी प्रवृत्ति करते हैं, जो मोह रहित हैं, अहंकार रहित हैं, जो धर्मध्यान वा शुक्लध्यान में सदा लीन रहते हैं, जो संसाररूपी अग्निके वाह को शांत करने के लिये मन-वचन-काय की शुद्धता पूर्वक ग्यारह अंग और चौवह पूर्व रूपी अमृतसे भरे हुए, अपने अंतःकरणके कर्ममलको यूर करनेवाले तीनों लोकों को शुद्ध करनेवाले और सर्वोत्कृष्ट ऐसे तीर्थंकरों के धर्म तीर्थ को ही जो सवा चितवन करते रहते हैं, इस तपश्चरण से बढ़कर तीनों लोकों में और कोई श्रेष्ठ हित करनेवाला नहीं है यही समझकर जो बारह प्रकार के महा घोर तपश्चरण के करने में सवा उत्साह करते रहते हैं, जो पंचेन्द्रियों के सुख में उत्पन्न हुई इच्छा का निरोध करने में सदा उद्यत रहते हैं और जो प्रमाद रहित होकर शुद्ध पारित्राचरण को पालन कर तथा उत्तम क्षमा आदि दस प्रकार के उत्तम घों को धारण कर सर्वोत्तम धर्म का पालन करते हैं । ऐसे भगवान अरहंतदेव के लिंग को ( निग्रंथ अवस्था को ) धारण करनेवाले महा मुनि ऊपर लिखे अनुसार निर्मल उपायों से अपने शुद्ध पाचरणों को पालन करते हैं उनके ही लिंगशुद्धि मानी गई है। ॥२३२६-२३३७।।
SR No.090288
Book TitleMulachar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy