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________________ मूलाचार प्रदीप] ( १३७ ) [ तृतीय अधिकार अर्थ-बुद्धिमान लोग भक्तिपूर्वक जो पांचों परमेष्ठियों के शरीर का दिव्य वर्णन करते हैं तथा उस वर्णनके द्वारा जो लोग उनको स्तुति करते हैं उसको शुभद्रव्य वंदना कहते हैं ॥८४०॥ धोत्र वन्दना का स्वरूपक्षेत्राधिष्ठित्तान्येव तैःलय प्रनयोगिमिः । स्तूयन्ते पुण्यकारिण क्षेत्राच्या वचनाहिसा ।।८४१॥ अर्थ-उन पांचों परमेष्ठियों के द्वारा जो क्षेत्र अधिष्ठित किया गया है रोका गया है उस पुण्य बढ़ानेवाले क्षेत्रकी स्तुति करना उसको क्षेत्र वंदना कहते हैं ॥४॥ काल वन्दना का स्वरूपतरेकजिनसिद्धाय :कालोयोऽधिष्ठितःशुभः । स्तूयन्तेसद्गुणोच्चारः सा कसवन्दनोजिता ।। अर्थ-एक तीर्थकर, एक सिद्ध एक साधु आदि के द्वारा जो शुभ काल अधिष्ठित किया गया है उसके गुणों को उच्चारण कर उसकी स्तुति करना काल वंदना है ॥४२॥ मात्र वन्दना का स्वरूणएकाहंदशरीराचार्योपाध्यायमहात्मनाम् । साधनां शुद्धभावेनभाषाहणपूर्वकम् ।।८४३॥ स्तवनं विचारः क्रियतेगुणभाषणः । साभाववंदना शेया शुभभावप्रवढिनी 1ml अर्थ--किसी एक परहंत एक सिद्ध एक आचार्य एक महात्मा उपाध्याय और एक साधु को शुद्ध भाव पूर्वक विचारवान पुरुषों के द्वारा स्तुति की जाती है उनके भाष ग्रहण कर उनके गुणों के वर्णन द्वारा जो स्तुति की जाती है उसको भाव वंदना कहते हैं । यह भाववंदना अनेक शुभ भावों को बढ़ाने वाली है ।।८४३-८४४।। वन्दना भावप्रयक के ४ कृतिकर्मप्रथमं कृतिकर्माप चितिकर्म द्वितीयकम् । पूजाफर्म तृतीयं च विनयकर्मचतुर्थकम् ।।८४५॥ अर्थ-स्ना में पहला कृति कर्म दूसरा चिति कर्म तीसरा पूजा कर्म और चौथा विनय कर्म किया जाता है ।।१४५॥ कृतिकर्म किसे कहते हैं ? कृत्यतेछियतेयेनाक्षरव्रजेन योगिभिः । सर्वमष्टविध कर्मकृतिकर्मसदुच्यते ॥६४६।। अर्थ-योगी लोग स्तुति के जिन अक्षरों से आठों प्रकार के कर्मों को खिन्न
SR No.090288
Book TitleMulachar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size14 MB
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