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________________ मूलाचार प्रदीप] ( ४२०) [ दशम अधिकार और धर्मरत्न की खानि ऐसी सम्यग्दर्शन को विशुद्धि मेरी सवा उत्कृष्ट और दृढ़ बनी रहे । जो ज्ञानाराधना भगवान सर्वज्ञदेव को दिव्यध्वनि से प्रगट हुई है, जो ग्यारह अंग और बारह पूर्व के धोबर है। एक कापार धूर्षः मेरी ज्ञानाराधना सदा शुद्धि बनी रहे। पांच महायत तीनगुप्ति और पांच समितियों से परिपूर्ण ऐसी तेरह प्रकार की मेरी चारित्राराधना समस्त दोषों से रहित हो । मैं अपने कर्म नष्ट करने के लिये समस्त इच्छाओं के निरोध करने से उत्पक्ष हुई तथा धोर वा उग्र उग्न रूप को धारण करने घाली और बारह प्रकार के भेदों से सुशोभित ऐसी तप आराधना को धारण करूंगा। ॥२७२८-२७३२॥ पुनः क्षपक ४ महा आराधना को धारण करता हैपाराधनाइमासारामहतोश्चचतुविषाः। सर्वोत्कृष्टाः करोत्येष विशुद्धामुक्तिमातृकाः ॥२७३३।। अर्थ-इसप्रकार चितवन करता हुआ वह क्षपक मोक्ष की इच्छा देनेवाली, अत्यन्त विशुद्ध, सर्वोत्कृष्ट और सारभूत ऐसी इन चारों प्रकार की महा पाराधनाओं को धारण करता है ॥२७३३॥ क्षपक पुनः कषाय एवं काय का सल्लेखना करता हैतथाकषायकायाभ्यां द्विधासल्लेखनां कृती । विधत्ते भुवि निःशल्पः क्षमातेषादिभिः परः ॥३४।। अर्थ-तदनंतर शस्यरहित वह बुद्धिमान वह क्षपक क्षमा संतोष आदि श्रेष्ठ गुणों को धारण कर कषाय और काय बोनों की सल्लेखना करता है अर्थात् कषायों को घटाता है और शरीर से ममत्व का त्याग करता है ।।२७३४।। कषाय सल्लेखना करने की विधिप्रादौ कुर्यास्कषायारणा परां सल्लेखनामिति । क्षमेहं विश्वजीयानामपराधकिलाजसा ।।२७३५॥ कृतं मयापराधं में क्षम्यतांत्रिजगज्जनाः। सर्वभूतेषु मंत्री च ममास्तुसुखकारिणी ॥२७३६।। अर्थ-वह क्षपक सबसे पहले कषायों की सल्लेखना करता है वह कहता है कि मैं समस्त जीवों के अपराध को क्षमा करता हूं तथा मुझसे जो अपराध बने हों, उनको लीनों लोकों के समस्त जीव समा कर देखें । तथा सुख देनेवाली मेरी मंत्री समस्त जोषों में हो ॥२७३५-२७३६॥ पुनः भपक सम्पूर्ण विकारों का त्याग पूर्वक समस्त पदार्थों में निर्ममत्व भाव धारण करता है पुरणानुरागएषालं न घर केम वित्समम् । राग कवायसम्बन्ध प्रद्वेषहर्षमंगसा ॥२७३७॥
SR No.090288
Book TitleMulachar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size14 MB
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