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________________ * --.-.... ..--..-..--- मूलाचार प्रदीप ] ( २२३ ) [पंचम अधिकार अर्थ-अथवा औपशमिक, मुक्तिस्त्री को वश में करनेवाला क्षायिक और क्षायोपशमिफ के भेव से इस सम्यग्दर्शन के तीन भेस हैं ।।८५॥ औपमिक सम्यग्दर्शन का स्वरूपप्राधाश्चतुः कषाया अनन्तानुबंधसंशकाः। तिस्रोमिथ्यात्वसम्यक्त्वमिश्रप्रकृतयोऽशुभाः ॥८॥ प्रासां सप्तविधानो प्रकृतीनां प्रतरे सताम् । समस्तोपशमेनोपशमिकाख्यं च दशनम् ।।८७॥ अर्थ-इस सम्यग्दर्शन को घात करनेवाली मोहनीय कर्म की सात प्रकृति हैं मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यकप्रकृति मिथ्यात्व ये तीन तो दर्शन मोहनीय को अशुभ प्रकृति हैं तथा अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ ये चार चारित्र मोहनीय की प्रकृति हैं इन सातों प्रकृतियोंका जब पूर्ण रूपसे उपशम होता है सब भव्य जीवोंके प्रौपशमिक सम्यग्दर्शन होता है ।।८६-८७॥ __क्षायिक सम्यग्दर्शन का स्वरूपनिःशेष क्षययोगेन क्षायिकं ज पते परम्। साक्षान्मुक्तिवरं ह्यासमभव्यानां च शाश्वतम् ।।८।। अर्थ-तथा इन्हीं सातों प्रकृतियों का जब पूर्ण रूपसे क्षय हो जाता है तब आसन्न भथ्य जीवों को क्षायिक सम्यग्दर्शन होता है। यह क्षायिक सम्यग्दर्शन साक्षात् मोक्ष देनेवाला है और प्रगट होने के बाद सदा बना रहता है ।।६।। क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शम का स्वरूप- - पण हि प्रकृतीनामुदयाभावे नृणां सति । सति सम्यक्त्यस्योपयोऽन्य शिक्षायोपशामिकाह्वयम् ।। अर्थ-इसीप्रकार सम्यकप्रकृति मिथ्यात्वको छोड़कर बाकी को छहों प्रकृतियों के उदयाभावी क्षय होनेपर तथा सत्तास्थित इन्हीं छहों प्रकृतियों के उपशम होने पर और सम्यकप्रकृति, मिथ्यात्वप्रकृति के उदय होनेपर मनुष्योंके क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन होता है ।।८६॥ ___ मम्यग्दर्शन प्राप्त करने का अधिकारी भव्य जीव ही है-- एतस्त्रिविषसम्यक वं भव्यानामिह केवलम् । प्रणीतं तीर्थनायेन न दुराभन्यदेहिनाम् Intol अर्थ-यह तीनों प्रकार का सम्यग्दर्शन केवल भव्य जीवों के ही होता है प्रभज्यों के नहीं। ऐसा भगवान जिनेन्द्रदेव ने कहा है । दूरभन्योंके भी यह सम्यग्दर्शन नहीं होता ।।१०।। -
SR No.090288
Book TitleMulachar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size14 MB
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