SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 391
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मूलाधार प्रदीप ] ( ३४६ ) [ सप्तम अधिकार आदि को प्रतिलेखन करना चाहिये, फिर क्षेत्रशुद्धि, कालशुद्धि और भावशुद्धि धारण कर आचार्य और जिनवाणी माता को नमस्कार करना चाहिये । और उस शिष्य को उपचारादिक विनय के साथ मन-वचन-कायकी शुद्धता पूर्वक जिनागमका सदा अभ्यास करते रहना चाहिये ।।२२५६-२२५८ ।। विनयपूर्वक जिनागम अभ्यास का निषेध एवं उससे होनेवाली हानि का निर्देशसुसुत्रार्थाश्म संस्कार शिक्षालोभादिभिर्म सः । कुर्यात्परिभवं शास्त्रा र प्रिय्या दिष्यतिक्रमः ।। २२५६।। यतः परिभवान्नूमंज्ञानस्याचार्य शिष्ययोः । प्रप्रीतिषु द्विनाशश्च ज्ञानावरणकर्म च ।। २२६० ।। असमाधिजिनेन्द्राज्ञोल्लंघनंबूग्विनाशनम् । कलहः भुतहा निश्च रुग्थियोगादिकं भवेत् ॥ २२६१ ॥ अर्थ - उस शिष्य को सूत्र और अर्थके ज्ञानके लोभसे द्रव्य क्षेत्र प्रादि के safare शास्त्रोंका अविनय वा तिरस्कार कभी नहीं करना चाहिये । क्योंकि ज्ञानका प्रविनय करने से श्राचार्य और शिष्यों में प्रेम नहीं रहता, बुद्धि का नाश हो जाता है, ज्ञानावरण कर्मका आस्रव होता है, समाधि का नाश होता है, भगवान जिनेन्द्रदेव की श्राज्ञा का उल्लंघन होता है, सम्यग्दर्शन का नाश होता है, परस्पर गुरु शिष्यों में कलह हो जाती हैं, श्रुतज्ञान की हानि हो जाती है, अनेक रोगाविक हो जाते हैं और इष्ट वियोग हो जाता है ।।२२५६-२२६१।। कालशुद्धि पूर्वक आगम श्रभ्यास करने की प्रेरणा विज्ञायेत्याखिलैर्वक्षः कालादिशुद्धमंजसा । कृत्वाजिनागमं मिस्य मध्येतव्यविशुद्धये ।।२२६२ ।। श्रर्थं - यही समझकर समस्त चतुर पुरुषों को अपने आत्माको शुद्ध करने के लिये कालशुद्धि आदि को धारण कर प्रतिदिन जिनागम का अभ्यास करते रहना चाहिये ॥ २२६२॥ संस्तर वृद्धि की प्रेरणा संस्रावास कादीनामुभयोः कालयोः सदा । प्रकाशे वसता सत्र कर्तव्यंप्रतिलेखनम् ।। २२६३ ।। अर्थ- वहां पर रहते हुए उस शिष्यको प्रातः काल और संध्याकाल दोनों समय अपने संस्तर और रहने के अवकाश को प्रकाश में ही प्रतिलेखन कर लेना चाहिये । पीसे शोध लेना और नेत्रोंसे देख लेना चाहिये ।।२२६३ ॥ परगण में भी आचार्य से पूछकर ही भिक्षादि चर्मा करनी चाहियेग्रामादिगमनेभिज्ञावाने कार्य मे खिले । उत्तराविसुयोगचा पृच्छाकार्यात्रपूर्ववत् ।।२२६४ ।। 平
SR No.090288
Book TitleMulachar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy