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मूलाचार प्रदीप ]
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छेद कर उनको फिर से दीक्षा देना मूल नामका प्रायश्चित्त है ॥१८८२ ।। परिहार नामके प्रायश्चित्त का स्वरूप व उसके भेद-
परिहारोतुस्थापन पारंचिक प्रभवतः । द्विविधः प्रोदितो ऋषि तिक संहननस्य वै ।।१८८३ ।। अर्थ- परिहार प्रायश्चित्तके वो भेद हैं एक अनुपस्थान श्रौर दूसरा पारंचिक । यही परिहार नामका प्रायश्चित्त पहले के तीन संहननों को धारण करने वालों को हो दिया जाता है । १६८३॥
[ षष्ठम अधिकार
अनुस्थापन प्रायश्चित्त का भेद
स्वस्यापरस्याभ्यां गरस्य श्रीगणाधिपैः । अनुपस्थापनं देवा कीर्तितं श्रीजिनागमे ।। १८८४ ।। अर्थ - - भगवान गरणधरदेव ने अपने जिनागम में अनुस्थापन के भी दो भेद कहे हैं, एक तो अपने ही संघमें अपने ही प्राचार्य से परिहार नामका प्रायश्चित्त लेना और दूसरा दूसरे गण में जाकर प्रायश्वित्त लेना ।। १८८४ ।।
स्वगण धनुस्थापन प्रायश्चित्त किसे देवें—
अन्य संयत सम्बन्धिनं यत नायिकां शुभम् । छात्रं बालं गृहस्थं वा परस्त्री चेतनेतरम् ॥१८८५|| arjunfett वा योsपहरे च्चौर्य कमरणा । सुनीन्हन्ति तथेत्यादि विरुद्धाचरणं चरेत् ।। १८६६ ॥ नवाना वा दशानां वा पूर्वारणां धारकोमहान् । चिरप्रवृतिः शूरो जिस शेष परीषहः ॥ १८८७ ॥ दूधर्मी च तस्यैव प्रायश्चितं जिनमसम् । अनुपस्थापनं स्वस्यगणाख्यं नामरस्य वं ।। १८८८ || अर्थ- जो मुनि चोरी करके अन्य मुनि के साथ रहनेवाले किसी मुनि को, अच्छी जिका को, विद्यार्थी को, बालक को, गृहस्थ को वा परस्त्री को अथवा द्रव्य पाखंडियों के अन्य प्रचेतन पदार्थों को अपहरण करले अथवा किसी मुनिको मार डाले श्रथवा ऐसा ही कोई अन्य विरुद्धाचरण करे तथा वह मुनि नौ वा वश पूर्वका घारी हो उत्कृष्ट हो चिरकाल का दीक्षित हो, शूर हो, समस्त परीषहों को जीतनेवाला हो और वृढ़ धर्मों हो ऐसे मुनिको भगवान जितेन्द्रदेव ने अपने ही गणका अनुस्थापन प्रायश्चित्त बतलाया है, उसके लिये परगण सम्बन्धी अनुस्थापन प्रायश्चित नहीं बतलाया । ।।१८६५-१६६८ ।।
स्वग अनुस्थापन प्रायश्चित्त को विधि-
सेन शिष्यामाद्वात्रिंशदण्डान्तर भूतलम् । विहरेत ववन्ते नित्यं वीक्षया लघुसंयतान् ॥८॥ लभले महि तेम्य: प्रतिवदनांसहाखिलम् । गुरूणां लोचनं कुर्यान्मौनं साद"
योगिभिः ॥६०॥