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________________ मूलाचार प्रदीप] ( ४४१) [एकादश अधिकार शरीरमण्डनं गोतवाद्यादिश्रवणं ततः । अर्थहेमाविसम्पर्मः कुशीलवुननाशयः ।।२०६६॥ राजसेवाक्षसौल्यायरात्रिसंचरणं वृथा । एते विराषनायोषाब्रह्मचर्यस्य वै दश ॥२८६७॥ अर्थ-स्त्रियों की संगति करना १, महा स्वाविष्ट सरस प्राहार का भोजन करना २, गंध माला आदि को सूचना ३, कोमल शयन और प्रासन पर सोना बैठना ४, शरीर को सुशोभित बनाये रखना ५, गीत बाजे प्रादि का सुनना ६, सोना चांदी प्रादि धन से संबंध रखना ७, कुशीली दुष्टों को संगति रखना ८, राजसेवा करना । और इन्द्रियों के सुख के लिये व्यर्थ ही रात्रि में घूमना १०, ये दश ब्रह्मचर्य की विराधना करनेवाले दोष हैं ॥२८६५.२८६७॥ ८४००, भेदों का कथन निर्देशत्रिशुखपा ये त्यजन्ले तान्वशदोषांस्लपस्थिनः । जायन्सेसद्गुणास्तेषां वशेष व्रतशुद्धिवाः ।२०६८। एलेर्दशविकल्परचतुरशीतिशतान्यपि । गुणितानिसहकाश्चतुरशीतिप्रमाणकाः ॥२५६६।। अर्थ-जो तपस्यो मन-वचन-काय को शुद्धतापूर्वक इन बश दोषों का त्याग कर देते हैं, उनके व्रतों को शुद्ध करनेवाले दश गुण प्रगट हो जाते हैं, ऊपर गुणों के चौरासीसो भेद बतलाये हैं, उनसे इन दश को गुणा कर देने से गुणों के चौरासी हजार भेद हो जाते हैं ॥२८६८-२८६६॥ आलोचना के दस भेदों का कथनप्रापितश्वदोषोनुमानितोऽदृष्टवावरौ । सूक्ष्मः प्रच्छन्नशोषोशवाकुलितसंज्ञकः ॥२८७०॥ दोषो बहजनोऽध्यक्तस्तत्सेवीसि यशस्फुटम् । बोषा मालोचनस्यैव भैया एतेषकारकाः ॥२७॥ अर्थ-आकंपित, अनुमानित, प्रदृष्ट, बाबर, सूक्ष्म, प्रच्छन्न, शम्दाकुलित, बहुजन, अध्यक्त, तत्सेवी ये वश पाप उत्पन्न करनेवाले आलोचना के वश बोष हैं। ॥२०७०-२८७१॥ ८ लाख ४० हजार गुरगों के कथन का निर्देशप्रमीयां दशदोषायित्नेनत्यमनास्सताम् । उत्पश्चन्तगुणाः शुद्धिकरास्तावन्त एव हि ॥२८७२।। एलेश्चतुरगीतिश्च सहनागितागुणः । वस्वारिंशसहस्राणि ह्यष्टलकाधिकान्यपि ॥२०७३॥ अर्थ-जो सज्जन पुरुष प्रयत्नपूर्वक इन दश दोषोंका त्याग कर देते हैं, उनके व्रतों को शुद्ध करनेवाले वस गुण प्रगट हो जाते हैं। ऊपर चौरासी हजार गुण बतला चुके हैं, उनके साथ इन बस का गुणा कर देने से प्राठ लाख चालीस हजार गुण हो
SR No.090288
Book TitleMulachar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size14 MB
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