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________________ सुलाचार प्रदीप ] ( १३० ) वे भगवान् मेरे लिये रत्नत्रय की प्राप्ति करें- लोकोको विश्वतत्त्वप्रकाशकाः । धर्मतीर्थकराः सर्वशान तीर्थविधायिनः ॥७६८ मन्तो मुक्तिभर्तारः पंचकल्यारणभागिनः । शरण्या भवभीतानामनन्त गुणसागराः ॥७६६॥ मंत्रमूलिनमा ध्येयाः कीर्तनीयाः जगत्सताम् । वंदनीया महान्तश्च पूज्यालोकोसमाः पराः ||५००|| forestaषितानिया निस्पृहाः स्तवनावपि । देवीनिकरमध्यस्थाः परब्रह्मव्रतांकिता ||८६०१ ॥ विश्वभव्य हितायुक्ताः सार्थवाहाः शिवाध्वनि ॥ ८०२ ॥ मुक्तियाविदाता धर्मार्थकाममोक्षदा । विश्वविघ्नाद्यहन्तारो भानिकानां न संशयः ।। याभ्यगुणयें पूर्णा जिनवरा भुवि । ते मे बोधि समाधिवदिशन्तु कोशिला नुताः ॥ ५०४ ॥ ॥ [ तृतीय अधिकार अर्थ - भगवान अरहंतदेव इस लोकमें समस्त लोक का उद्योत करनेवाले हैं, समस्त तत्त्वों को प्रकाशित करनेवाले हैं, धर्मके तीर्थंकर हैं, समस्त ज्ञान और तीर्थोकी प्रवृत्ति करनेवाले हैं, मोक्षके स्वामी हैं, गर्भादिक पंच कल्याणों को प्राप्त हुए हैं, संसार से भयभीत हुये मनुष्यों को शरण हैं, अलगों के समुद्र है, मंत्रों की मूर्तिस्वरूप हैं, तथा समस्त जगत के सज्जनों को ध्यान करने योग्य और स्तुति करने योग्य हैं। वे भगवान वंदनीय हैं, महान् हैं, पूज्य हैं, लोकोलम हैं और सर्वोत्कृष्ट हैं । वे भगवान सदा ही दिव्य विभूतियों से विभूषित रहते हैं, अपने शरीर से भी निस्पृह हैं, अनेक देवियों के मध्य में विराजमान रहते हुए भी परम ब्रह्मचर्य व्रतसे सुशोभित रहते हैं । वे भगवान आतम क्षमा आदि उत्तम गुणोंसे सदा सुशोभित रहते हैं कर्मरूपी शत्रुओं को नाश करनेवाले हैं, रामस्त भव्य जीवों का हित करने के लिये सदा तत्पर रहते हैं। और मोक्ष मार्ग में वे सदा सहायक रहते हैं । वे भगवान भक्त पुरुषों को भक्ति और मुक्ति दोनों के देनेवाले हैं, धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चारों पुरुषार्थों को देनेवाले हैं तथा समस्त विघ्नों और पापों को नाश करनेवाले हैं । इसप्रकार ने भगवान अनेक गुणों के समूहों से परिपूर्ण हैं । उन भगवान की मैंने यह स्तुति की है तथा उनको नमस्कार किया है इसलिये वे भगवान मेरे लिये रत्नत्रय की प्राप्ति करें और समाधि की प्राप्ति करें || ७६८-८०४ ॥ तीर्थंकर तीर्थ कहलाते हैं सम्यग्वर्शन सद्ज्ञान चारित्राण्यत्र यानि च । परमार्थेन तीर्थाति दुष्कर्ममलनाशनात् ॥ ८६०५ ॥ तेषां ये च प्रणेता महद्धिस्तरलं कृताः । तन्मया वा जगन्नाथास्तेऽवतीर्थाभिवस्य हो ||८०६।१ अर्थ - वास्तव में देखा जाय तो अशुभ कर्मों का नाश रत्नत्रय से ही होता है,
SR No.090288
Book TitleMulachar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size14 MB
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