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________________ मूलाचार प्रदीप] ( १८८ ) [ चतुर्थ अधिकार अर्थ--उस कायोत्सर्ग में भुजाएं लंबायमान होती हैं दोनों पैरों में चार अंगुल का अंतर रहता है और समस्त शरीर का हलन-चलन बंद कर दिया जाता है । ऐसा यह कायोत्सर्ग चार चार प्रकार का होता है ।।६३।। चारों के नामउस्थितोस्थितनामोत्थितोपविष्टसमावयः । उपविष्टोस्थितास्यकिलासोनासीनसंज्ञकः ॥६४॥ अर्थ-पहला उत्थितोस्थित, दुसरा स्थितोपविष्ट, तीसरा उपविष्ठोस्थित और चौथा उपविष्टोपविष्ट अथवा आसीनासीन ये चार कायोत्सर्ग के भेद हैं ॥६४॥ इनमें २ अशुभ कायोत्सर्ग नहीं करने पाहियेएतः शुभाशुभ दैः कायोत्समश्यतुर्विधः। द्विधा प्याजोद्विषा ग्राहस्तेषां मध्येसयोगिभिः ।।६।। अर्थ-इन चारों प्रकार के कायोत्सर्ग में दो शुभ हैं और वो अशुभ हैं। मुनियोंको दोनों अशुभ कायोत्सर्गों का त्यागकर वेना चाहिये और दोनों शुभ कायोत्सर्ग ग्रहण कर लेना चाहिये ॥६५॥ धर्मशुमलाभिधंद्वधा थ्यानं यस्कियते बधः । कायोत्सर्गरण मुत्य सः ध्युत्सर्ग उस्थितोत्थितः ॥६६।। अर्थ-जो बुद्धिमान मुनि मोक्ष प्राप्त करने के लिये खड़े होकर कायोत्सर्ग करते समय धर्मध्यान वा शुक्लध्यान का चितवन करते हैं उसको उत्थितोत्थित कायोल्सर्ग कहते हैं ।।६६॥ प्रातरौद्राख्याने कायोत्सर्गेण यःस्थितः ध्यायेत्तस्य तनरसर्गः उत्थितासीनसंशकः ॥६॥ अर्थ-जो मुनि खड़े होकर कायोत्सर्ग के द्वारा प्रार्तध्यान और रौद्रध्यान का चितवन करता है उसको उत्थितासीन कायोत्सर्ग कहते हैं ।।६७॥ निधिष्टोस्थित नामक कायोत्सर्ग का स्वरूपधर्मशुमल शुभध्यानालिविष्टो भजतेश्रयः । हवा तस्य तनूस्सों निविष्टोरिपतनामकः ॥६॥ अर्थ- जो मुनि बैठकर कायोत्सर्ग करता है और उसमें हृदय से धर्मध्यान तथा शुक्लध्यानका चितवन करता है उसके निविष्टोत्थित नामका कायोत्सर्ग कहलाता है ॥६॥ आसीनासीन नामक कायोत्सर्गध्यायल्यत्र निविष्टो य. प्रातरौद्राणि तसा । ध्यानानि तस्य चासोनासोनव्युत्सर्ग एयहि ।।६।।
SR No.090288
Book TitleMulachar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size14 MB
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