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________________ मुलाचार प्रदीप] [पष्टम अधिकार अर्थ-ये पांचों प्रकार के आचार भगवान जिनेन्द्रदेव के कहे हुए हैं और सर्वोत्कृष्ट हैं इसलिये जो चरम शरीरी चतुर पुरुष मन-वचन-कायको शुद्ध कर परमभक्ति से मोक्ष प्राप्त करने के लिये इन पांचों आचारों का पालन करते हैं वे महापुरुष घातिया कर्मरूपी शत्रुओं को नाश कर परम केवलज्ञान प्राप्त करते हैं, उस समय वे देवोंके द्वारा पूजे जाते हैं और अंतमें समस्त कर्म और शरीर को नाशकर परम मोक्ष. स्थान में जा विराजमान होते हैं । पने देष मिल्यो नमाता करते हैं और भी अनेक मुनिराज जो अपनी शक्ति के अनुसार मोक्ष देनेवाले सर्वोत्कृष्ट इन सारभूत पांचों आचारों का पालन करते हैं, वे तीनों लोकों में उत्पन्न होनेवाले सर्वार्थ सिद्धि आदि के श्रेष्ठ सुख भोगते हैं, श्रेष्ठ राज्य का अनुभव करते हैं और अंतमें संयम पालन कर अनुक्रम से मोक्ष प्राप्त करते हैं । ये पांचों आचार सारभूत हैं, स्वर्ग मोक्षके कारण है. कर्मरूपी हाथियों के लिये सिंह के समान हैं, कुगति रूपो घर को बंद करने के लिये कपाटके समान हैं और तीर्थकर परमदेव भी इनका पालन करते हैं। प्रतएव इन पंचाचारों के अर्थ को समझने वाले पुरुषों को मोक्ष सुख प्राप्त करने के लिये मोहरूपी शत्र को नाश कर इन पांचों आचारों का पालन करना चाहिये ॥२१४५-२१४७॥ तीर्थकर देव प्ररूपित पंचाचार का फल - मामेयाचं जिमेशस्त्रिभुनहित यःप्रणीताधरित्र्यामाचारामुक्तिसिद्ध गणधरसहितस्तत्फलेतान लन्धः । मोक्षो यः सिद्धनाथस्त्रि विषमुनिगणरादता येऽत्र, परमात् ते सर्वधर्मनाभास्प्रिनगलिगुरुवो मेप्रदुध स्वभूतीः ।।२१४८।। इति श्रीमूलाचारप्रदीपकाल्ये महाप्रथे भट्टारक भीसकलकोतिविरचिते पंचाचार यावर्णने जानचारित्रवपो वीर्याचार वर्णनो नाम षष्ठोधिकारः । अर्थ- तीनों लोकों के द्वारा पूज्य ऐसे जिन वृषभदेव आदि तीर्थंकरों ने वा जिन गणधरदेवों ने मोक्षकी सिद्धि के लिये इन पांचों आचारों का इस लोक में निरूपण किया है तथा जिन सिद्ध भगवान ने इन पंचाचारों के फल से मोक्ष की प्राप्ति की है और जिम आमार्ग उपाध्याय साधुओं ने प्रयत्नपूर्वक इन प्राचारों का पालन किया है, वे सब धर्मके स्वामो और तीनों लोकों के गुरु भगवान पंचपरमेष्ठी मेरे लिये अपनीअपनी विभूति प्रदान करें ॥२१४८।। इसप्रकार प्राचार्य सकल कीति विरचित मूलाचार प्रकोप नामक महानन्थ में पंचाचारके वर्णनमें ज्ञान नारिय तप वीर्याचार को निरूपणा करनेवाला यह छठा अधिकार समाप्त हुआ।
SR No.090288
Book TitleMulachar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size14 MB
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