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मूलाचार प्रदीप]
( ४६८)
[ द्वादश मधिकार प्राचार प्रदीप नामक ग्रन्थ की प्रामाणिकता एवं स्तुतिविावेरोनितीमहितमपमलं वन्दितं संस्तुतं च, विश्वाधारप्रदीपंगुणगरगजनकतोयनाथः प्रणीतम् । प्रबिंगाविपूर्वैगरणपरयमिभिर्यनिबद्ध मयातत् नित्यं,
पास्वद्धिसकलपतिगणधर्मतीथं हि यावत् ॥३२४५।।
अर्थ-जो प्राचार प्रदीप ज्ञान का तीर्थ है, तीनों लोकों के इन्नों के द्वारा पूज्य है, यंदनीय है, स्तुति करने योग्य है, समस्त आचारों को दिखलाने वाला दीपक है, अनेक गुणों के समूह को उत्पन्न करनेवाला है, अर्थरूप से भगवान तीर्थकर परमदेव का कहा हुआ है, तथा अर्थरूप से अंग पूर्व के द्वारा गणधर परमदेवों ने इसकी रचना की है, उसी को मैंने रचना रूप में प्रगट कर दिया है ऐसा यह प्रन्थ जब तक धर्मतीर्थ की प्रवृत्ति रहे तब तक समस्त मुनियों के समूह के द्वारा सदा वृद्धि को प्राप्त होता रहे ॥३२४५॥
आचार्य स्वयं ज्ञान तीर्थ की स्तुति करते हुए स्तुति के फन की कामना कर रहे हैं-- एतद्ज्ञानसुतीर्थसारमतुलं प्रोक्तमयासंस्तुतं पंद्य मेति सुलोभिनः शिवपधरलनयंनिर्मलम् । शुद्धिवाक्तनुचेतसो च सुमति बोधिसमाषिगुरपान तीर्थशासुगतिववासकलं दुःखं निहत्य तम् ॥
अर्थ-यह वंदना करने योग्य, स्तुति करने योग्य, उपमारहित और सारभूत ऐसा मेरे द्वारा कहा हुआ ज्ञान तीर्थ अत्यन्त लोभ करनेवाले मेरे समस्त दुःखों को दूर कर मुझे मोक्ष मार्ग प्रदान करे, निर्मल रत्नत्रय प्रदान करे, मन-वचन-काय को शुद्धि प्रदान करे, पंडितमरण प्रदान करे, बोधि और समाधि को प्रदान करे, तीर्थंकरों के गुणों को प्रदान करे और सबसे उत्तम गति प्रदान करे ॥३२४६।।
पश्च परमेष्ठी की स्तुति पूर्वक मंगल कामना करते हैंअसमगुणनिधानास्तोपनाषा: शरण्याः जगतिरहितवेहा विश्वलोकाप्रमूता: 1 त्रिविधगुणमहान्तः साश्वोयेशिलास्ते ममसकलसुलाप्रमेसन्तुमागल्यवा षः ।।३२४७।।
अर्थ-इस संसार में अनुपम गुणों के निधान और सबको शरणभूत जितने तीर्थकर हैं तथा शरीर रहित और लोक शिखर पर विराजमान जितने सिद्ध हैं और अनेक गुणों से सुशोभित जितने प्राचार्य, उपाध्याय, साधु हैं वे सब मेरे लिये समस्त सुखों को देनेवाले हों और तुम्हारे लिये समस्त मंगलों को बेनेवाले हों ।।३२४७॥