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________________ मूलाचार प्रदीप [पंचम अधिकाय जिन शासन ही शरण लेने योग्य है और सुपात्र दान ही हितकारी है-- जैनशासमतो नान्यत् शासनं शरणं सताम् । सुपात्रदानतो नान्यद् दानं स्वान्यहितंकरम् ।।६।। अर्थ-यह जैन शासन ही सज्जनों को शरण लेने योग्य उत्तम शासन है। इसके सिवाय अन्य कोई शासन शरण लेने योग्य नहीं है । अपना और दूसरों का हित करनेवाला सुपात्र दान ही दान है इसके सिवाय अन्य कोई दान हित करनेवाला नहीं है ॥६॥ जिन सिद्धांत और जिन सूत्र हो यथार्थ शास्त्र हैद्विषड्भेक्तपोभ्योऽन्यन्न तपः कर्मघातकम् । जिमसिद्धांतस्त्रेभ्यो नान्यच्छास्त्रं च सूनतम् ।।१७।। अर्थ--बारह प्रकार का तपश्चरण ही कोको नाश करनेवाला तपश्चरण है। इसके सिवाय अन्य कोई तपश्चरण कर्मों को नाश करनेवाला नहीं है। जिन सिद्धांत और जिन सूत्र ही यथार्थ शास्त्र है । इनके सिवाय अन्य कोई शास्त्र यथार्थ नहीं है । ॥१३१७॥ जिनेन्द्रदेव प्रणीत धमीद की रचि कला, श्रद्धान करना हो सम्यग्दर्शन है - इत्याचपर धर्माणां जिनोक्तानां महीतले । प्रामाण्यपुरुषाधम्ध श्रद्धानं बुधसत्तमः ।।८।। क्रियते या रुधिश्चित निश्चयो योपवामहान् । तत्सर्व वृष्टि कल्प नुमस्य स्थानमूलकारणम् ।।६।। अर्थ- इस संसार में पुरुष के प्रमाण होने से उसके वचन प्रमाण माने जाते हैं । भगवान जिनेन्द्रदेव वीतराग और सर्वज्ञ हैं अतएच सर्वोत्कृष्ट प्रमाण हैं । इसलिये उत्तम पुरुष उन्हीं के कहे हुए धर्मका श्रद्धान करते हैं उसी में रुचि करते हैं और अपने हृदय में उसी का महान् निश्चय करते हैं । इसके सिवाय अन्य धर्मका के कभी श्रद्धान नहीं करते । इसप्रकार के श्रद्धानमें सम्यग्दर्शन रूपी कल्पवृक्ष ही मूल कारण समझना चाहिये । अर्थात् ऐसा थद्वान होना ही सम्परवर्शन है अथवा सम्यग्दर्शन के होने से हो ऐसा श्रद्धान होता है ॥६-६६॥ तत्वों का प्रदान करना सम्यग्दर्शन है सप्त तत्वों के नामअथ तेषां तस्थानां श्रद्धानेनात्र लम्यते । निर्मतं वर्षानं तानि तस्वान्येव विशाम्यहम् ॥१४००।। जीवाणीवानवा षषः संघरो निर्जरा परा । मोक्षोमूनि सुस्तत्वामि भाषितानि जिनाधिपः ।। अर्थ-इस संसार में तस्वों का धसान करने से ही निर्मल सभ्यग्दर्शन होता है इसलिये अब हम उन तस्वों का ही स्वरूप निरूपण करते हैं। भगवान जिनेन्द्रदेव
SR No.090288
Book TitleMulachar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size14 MB
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