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________________ मूलाधार प्रदीप ] ( २५२ ) [ पंचम अधिकार तस्यैव सफलं जन्म म येहं कृतिनो भूवि । शशांक निर्मलं येन स्वोकृलं दर्शनं महत् ॥६२॥ अर्थ --- जिन लोगों ने अपना सम्यग्दर्शन रूपी रत्न कभी भी मलिन नहीं किया है वे ही मनुष्य इस संसार में धन्य हैं विद्वान लोग उनकी ही पूजा करते हैं और देव लोग उन्हीं की स्तुति करते हैं । जिस पुरुष ने चन्द्रमा के समान निर्मल सम्यग्दर्शन स्वीकार कर लिया है उसी महा पुण्यवान् का जन्म मैं सफल मानता हूं ।।६१-६२ ।। सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट को मोक्ष प्राप्ति असम्भव है यतश्चारित्रतो भ्रष्टाः केचित्सम्यक्त्वशालिनः । सिद्धयन्ति तपसा लोके स्वीकृत्य चरणं पुनः || ये भ्रष्टा दर्शनासे च भ्रष्टा एव जगत्त्रये । चारित्रेसत्यपि ज्ञानेमोक्षस्तेषां न जातुचित् । ६४ ॥ - इसका भी कारण यह है कि कितने ही सम्यग्दृष्टि ऐसे हैं जो चारित्र से भ्रष्ट हो जाते हैं परन्तु वे फिर भी चारित्र को धारण कर तपश्चरण के द्वारा सिद्ध हो जाते हैं परन्तु जो सम्यग्वर्शन से भ्रष्ट हो जाते हैं, वे चारित्र के होनेपर भी तथा ज्ञान के होने पर भी तीनों लोकों में कहीं भी मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकते ।। ६३-६४।। सम्यग्दर्शन की महिमा दृष्टान्त पूर्वक यस्माच्च ज्ञानचारित्रे मिथ्यात्वविषथिते । भवतो न नर्बाचिरकाले परमेपि शिवाप्तये ||१५|| अतो विनात्र सम्यक्त्वं ज्ञानमज्ञानमेव भो । दुश्चारित्रं च चारित्रं कुतपः सकलं तपः ।। ६६ । धन्यवादुष्करं कायक्लेशमातपनाविकम् । कथ्यते निष्फलं सा तुषखंडन वज्जिनेः ॥ ६७ ॥ यथा बीजाद् ऋते जातु क्षेत्रे न प्रवरंफलम् 1 दर्शनेन बिना सहन चारित्रे शिवादि च ||१८|| अर्थ- इसका भी कारण यह है कि मिध्यात्वरूपी विषसे हृषित हुए ज्ञानको और चारित्र कितने ही उत्कृष्ट क्यों न हों फिर भी उनसे मोक्षकी प्राप्ति कभी नहीं सम्यग्दर्शन के ज्ञान अज्ञान है चारित्र इनके सिवाय जो अत्यन्त कठिन आतकेवल शरीर को क्लेश पहुंचाने वाले निष्फल है ऐसा भगवान जिनेन्द्रदेव के हो सकती । इसलिये कहना चाहिये कि बिना मिथ्या चारित्र है और समस्त तप कुतप है । पनादिक योग है वे भी सब बिना सम्यग्दर्शन हैं और चावल की भूसी को कूटने के समान सब ने कहा है । जिसप्रकार बिना बीज के किसी भी खेत में कभी भी उत्तम फल उत्पन्न नहीं हो सकते उसी प्रकार बिना सम्यग्दर्शन के केवल चारित्र से कभी भी मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती ।।६५-६६।। सम्यग्दर्शन का फल सम्यग्दर्शनसम्पन्नंमातंगमपि तसे । माविमुक्तिवकान्तं मेवा देवं वदन्त्यहो ||६
SR No.090288
Book TitleMulachar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size14 MB
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