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________________ मूलाधार प्रदीप ] { ४५४ ) [एकादश अधिकार इत्येतयोःफलं ज्ञात्वा त्यक्स्वामृषाषछो खिलम् । वदन्तुनिपुणाः सत्यं मधुरंसमोहितम् ।।२९५६।। अर्थ-मिथ्या भाषण करनेवालों को अज्ञानता की प्राप्ति होती है, मुख के अनेक रोग उत्पन्न हो जाते हैं, संसारमें अपकीति फैल जाती है, अनेक दुःखों की प्राप्ति होती है और महा पाप उत्पन्न होता है। इसप्रकार सस्य असत्य बोनों का फल समझ कर बुद्धिमानों को सब तरह के मिथ्या भाषण त्याग कर देना चाहिये और हित करने वाले मधुर सत्य वचन कहने चाहिये ॥२६५५-२६५६।। शौध धर्म का लक्षणइन्द्रियार्थेष्वनासक्त निस्पृहं विशववस्तुषु । सर्वागिकरणाकान्तमनः कृत्यायनितम् ॥२९५७।। लोभशत्रु निहत्योपः सन्तोषो यो विषीयते। विश्वार्थस्वसुखादौतच्छौथं सद्धमंलक्षणम् ।।५।। अर्थ-जो मुनि अपने मनसे इन्द्रियों के विषयों की आसक्ति का त्याग कर देते हैं, अपने ही मन में समस्त पदार्थों की निस्पृहता धारण करते हैं और समस्त जीवों की दया पालन करते हैं । इसप्रकार अपने मनको पाप रहित बनाकर लोभ रूपो शत्रु को सर्वथा नाश कर डालते हैं और समस्त पदार्थों में तथा अपने सुखादिक में पूर्ण संतोष धारण करते हैं, उसको शौच नामका धर्म कहते हैं ।।२६५७-२६५८।। लोभ के चार भेद एवं उन्हें त्यागने की प्रेरणाजोवितारोग्य पंचेन्द्रियोपभोगेश्चतुबिषः । स्वान्ययोरत्रलोभोवक्षस्त्याज्यः समुक्तये ॥२९५६॥ अर्थ-इस संसार में लोभ चार प्रकार का है, जीवित रहने का लोभ, मारोग्य रहने का लोभ पंचेन्द्रियों का लोभ और भोगोपभोगों की सामग्री का लोभ । चतुर पुरुषों को मोक्ष प्राप्त करने के लिये अपने तथा दूसरों के दोनों के लिये चारों प्रकारके लोभ का त्याग कर देना चाहिये ।।२६५६॥ किसको शौच धर्म की प्राप्ति होती हैनिर्लोभानां जिताक्षाणां शौचधर्मोहिकेवलम् । जायतेपरमोमुक्य न कामाशक्तचेतसाम् ।२६६०॥ अर्थ-~-जो इन्द्रियों को जीतनेवाले निर्लोभी हैं, उन्हीं के मोक्ष प्राप्त करनेवाले परमोत्कृष्ट शौचधर्म की प्राप्ति होती है, जिनका हृदय कामवासना में लगा हुमा है, उनके शौचधर्म की प्राप्ति कभी नहीं होती ।।२९६०॥ निर्लोभी एवं लोभी पुरुषों को संसार में किसकी प्राप्ति होती हैशोधन महतो लक्ष्मो वनत्रयगोचरा । मुक्तिस्त्रोस्वयमायातिनिर्लोभरिचयमाःपरम् ।।२९६१॥
SR No.090288
Book TitleMulachar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size14 MB
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