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________________ ( २८१ ) अनशन तपकी महिमा व उसे करने की प्रेरणा उपवासाग्निनापुंसां कायः संतप्यतेतराम् । बह्यन्ते सकलाक्षारिण कर्मेन्धनान्यनन्तश ।।१७६८ ated गल्लक्ष्मीर्नाक श्रीश्यावा मुक्तिस्त्रों सन्मुखं पश्येदुपवासफसात्सताम् ॥६॥ इत्यस्य प्रवरं ज्ञात्या फलं शक्या शिवाप्तये । बहूपवासभवांश्च प्रकुर्वन्तु तपोधनाः ।। १८०० ॥ अर्थ- इस उपवास रूप से मनुष्यों का शरीर अत्यंत संतप्त हो जाता है और फिर उससे समस्त इन्द्रियां और अनंत कर्मरूपी ईधन सब जल जाता है । इस उपवास के फल से सज्जनों को तीनों लोकों की लक्ष्मी प्राप्त हो जाती है, स्वर्ग की लक्ष्मी प्राप्त हो जाती है, और श्रेष्ठ कल्याण करनेवाली मुक्तिस्त्री सामने आकर खड़ी हो जाती है । इसप्रकार इस उपवास का सर्वोत्कृष्ट फल समझकर तपस्वियों को मोक्ष प्राप्त करने के लिये अपनी शक्ति के अनुसार प्रनेक मेद रूप उपवासों को सवा करते रहना चाहिये ।।१७६८- १८०० ।। प्रमोद तपका स्वरूप और उसके जघन्यादि भेद- मूलाचार प्रदीप [ पम अधिकार सहस्र तंदुरेकः कथलोत्रादितो नृणाम् । द्वात्रिंशकवलं पूर्ण माहारश्चागमेजिनः । १८०१ ॥ एकेन कथलेनेवोनहारो येनभुज्यते । तपोमं हि जघन्यं तदवमौवयंसत्तपः ।। १८०२ ॥ प्रकास मात्र य ब्राहागृह्यते चिवे । तपस्विभिस्तपोयं तदवयवयमुतमम् ।। १८०३ ।। जघन्योत्कृष्टयोर्मध्ये त्रातृप्ति भोजनं हि यत् । बहुधातपसे तायमोदयंसुमध्यमम् ।। १८०४ ।। अर्थ - भगवान जिनेन्द्रदेव ने मनुष्यों के लिये एक हजार चावलों का एक ग्रास बतलाया है, तथा जिनागम में बत्तीस ग्रासों का पूर्ण आहार बतलाया है । जो मुनि अपना सम बढ़ाने के लिये एक प्रास कम आहार लेते हैं उसको जघन्य अवमोदर्य नामका श्रेष्ठ तप कहते हैं । जो तपस्वी अपना तपश्चरण बढ़ाने के लिये वा आत्माको शुद्ध करने के लिये केवल एक ही आहार का ग्रास लेते हैं, वह उत्तम प्रवमौदर्य तप कहलाता है । एक प्रास से अधिक प्रौर इकसीस ग्रास से कम ग्रासों का आहार लेना मध्यम अवमोदर्य है । यह अब मोदर्य तपश्चरणके हो लिये किया है और इसमें उतना ही आहार लिया जाता है जिसमें पूरी तृप्ति न हो ।।१६०१-१८०४ । प्रमोद तपकी महिमा व उसे करने को प्रेरणा अनेन तपसा नृर्णा निद्राजयः स्थिराशनम् । ग्लानिहानिः श्रुतं ध्यानं स्याज्वामुक्तिअमात्ययः || त्यातगुणात् शाश्वावमौर्यं तपोनधम् । प्रासादिहापर्वक्षाः कुर्वन्तु ध्यान सिद्धये ।। १८०६ ।। --इस तपश्चरण से मनुष्यों का निद्रा का विजय होता है, श्रासन स्थिर अर्थ --
SR No.090288
Book TitleMulachar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size14 MB
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