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________________ मूलाचार प्रदीप] ( ४२६ । [ दशम अधिकार केलिप्रोक्तधर्मस्यशरण्यस्याखिलापदि । तपोरस्तत्रयादीनां विश्वसातारिघातिनाम् ॥२७६५।। अर्थ-अब मैं इन रोगों से उत्पन्न हए क्लेशों को शांत करने के लिये तोनों लोकों के सज्जनों को शरणभूत ऐसे समस्त प्ररहत सिद्ध और साधुओं को शरण लेता हूं तथा समस्त प्रापत्तियों में शरणभूत ऐसे केवली भगवान के कहे हुए घमं की शरण लेता हूं और समस्त दुःखरूपी शत्रुओं को नाश करनेवाले तप और रस्नमय की शरण लेता हूं ॥२७६४-२७६५॥ रत्नत्रय आदि शरणभूत क्यों ? पतो लोकोसमा ये ते विश्वमंगलकारिणः । शरण्या भध्यजीयानाममापिसन्तुसिद्धिदाः ॥२७६६।। अर्थ-क्योंकि संसार में ये हो लोकोत्तम हैं, ये हो समस्त मंगल करनेवाले हैं और ये ही भव्य जीवों को शरण हैं । इसलिये ये सब मेरे लिये भी समस्त कार्यों की सिद्धि करें अथवा मुझे सिद्ध अवस्था प्रदान करें ॥२७६६॥ धीर वीरता के साथ रोमादि सहना हो श्रेष्ठ हैधीरत्वेनापि मर्तव्यं कातरत्वेन वा यदि । कातरत्वं सुवा त्यक्त्वा धीरत्वे मरणं वरम् ।। २७६७॥ घोरत्वेनापिसोडव्यं रोगादिफर्मजं फलम् । कातरस्वेन वा पुंसां धीरत्वेन बरं च यत् ।।२७६८।। अर्थ-वेखो मरना धीर वीरता के साथ भी होता है और कातरता के समय (रो रो कर) भी होता है। परन्तु कातरता का त्याग कर धोरवीरता के साथ भरण करना अच्छा है, इसीप्रकार रोग क्लेश कर्मों का फल धीरवीरता के साथ भी सहन किया जाता है और कायरता के साथ भी सहन किया जाता है, परन्तु कायरता को छोड़कर धीरवीरताके साथ रोग वा क्लेशों को सहन करना मनुष्यों के लिये हितकारक है ॥२७६७-२७६।। शील पूर्वक मरण करना ही श्रेष्ठ हैशोलेनाप्पत्र मतव्यं निःशीलेनापिचेत्सताम् । निःशीलत्वं परित्यज्य शोलने मरनवरम् IIEIL अर्थ-इसीप्रकार शीलादिक व्रतों को धारण कर भी मरण होता है और बिना सील व्रतोंको धारण किये भी मरण होता है, परंतु सज्जन पुरुषों को निःशीलता का त्याग कर शील धारण कर मरना अच्छा ।।२७६६॥ पुनः क्षपक को मन स्थिर करने की प्रेरणाइत्यादिचिन्सनयानः कुर्वम् स स्वननःस्थिरम् । ददाति चातुगन्तुं न मनालासतिषिम् ॥
SR No.090288
Book TitleMulachar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size14 MB
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