________________
मूलाचार प्रदीप ]
( ३६६ )
[ अष्ठम अधिकार
अर्थ-- अपने शरीर में प्रक्षालन आदि का संस्कार करना भी स्त्रियों में स्नेह उत्पन्न करनेवाला है, मोहरूपी शत्रु को उत्पन्न करनेवाला है और अत्यंत अशुभ है, इसलिये चतुर मुनिराज शरीर का संस्कार कभी नहीं करते हैं तथा किसी भी परिग्रह में किसी समय भी ममत्य भाव धारण नहीं करते इसको आचार्य लोग उज्झन शुद्धि कहते हैं । २४११-२४१२ ।।
उज्झन शुद्धिधारी मुनिराज शरीर संस्कार नहीं करते -
धावनंमुखवतानाम॒द्वर्तनं च सर्वनम् । पावप्रक्षालन नेवांजनं च कायपनम् ॥ २४१३ ।। मज्जनं मंडनं जातु वमनं च विरेचनं । इत्याखापरसंस्कारं निर्ममास्ते न कुर्वते ।। २४१४ ।।
अर्थ - मोहरहित वे मुनिराज मुख और दांतों को न कभी धोते हैं, न कुल्ला करते हैं, न घिसते हैं, न पैर धोते हैं, न नेत्रों में अंजन लगाते हैं, न शरीर को प में सुखाते हैं, न स्नान करते हैं, न शरीर की शोभा बढ़ाते हैं, न वमन विरेचन करते हैं तथा और भी ऐसे ही ऐसे शरीर के संस्कार से मुनिराज कभी नहीं करते ।। २४१३२४१४ ॥
वे मुनिराज रोग प्रतिकार के लिये औषध की इच्छा नहीं करते
कुष्ठवर मदश्विताद्यसाध्यरुकशतादिषु । दुस्सहेष्वत्र जातेषु पूर्वासातोवयेम भोः ।। २४१५ ।। स्वकर्मपाकने सारः प्रौषधाद्यं मं जातुचित् । तच्छान्तयेप्रतीकार मिच्छन्तिपात हानवे ।। २४१६ ॥
अर्थ - अपने कर्मों के विपाक को जानने वाले थे मुनिराज पहले के असाता कर्मके उदय से प्रत्यन्त असह्य और असाध्य ऐसे कोढ़, ज्वर, बायु का विकार वा पित्त का विकार आदि सैकड़ों रोग उत्पन्न हो जांय तो वे मुनि अपने पापों को नाश करने के लिये उस दुःख को सहते रहते हैं उन रोगों को दूर करने के लिये औषधि आदि के द्वारा कभी प्रतिकार नहीं करते, तथा न कभी प्रतिकार करने की इच्छा ही करते हैं । ।। २४१५-२४१६॥
वे मुनिराज रोगके होनेपर भी वेदखिन नहीं होते
दुर्व्याधिवेदनायासर्वांगा श्रपि निस्पृहाः । भवन्ति दुर्मनस्का न स्वस्था प्राणप्रचान्यथा । २४१७॥ करनेवाले उन मुनिराजों का समस्त शरीर रहा हो तो भी वे अपने मनमें लेद खिन्न नहीं होते वे पहले के हो समान स्वस्थ बने रहते हैं उन रोगों से उनके मनमें कभी
अर्थ -- निस्पृह वृत्ति को धारण अनेक असाध्य रोगों की बेदमा से व्याप्त हो