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________________ मूलाचार प्रदीप ] ( १११) [ तृतीय अधिकार इस जोधको सातवें मरक तक पहुंचा देती हैं ।।६८१॥ ये इन्द्रियरूपी शत्रु प्रवल शत्रुओं से भी अधिक भयंकर हैंपरिभ्योऽपि महादुष्टा अवरम्तेन्द्रियशववाः । इहामुत्र मनुष्याणां कृत्स्न दुःखनिबंधमाः ॥६८२॥ यसोधारायः किचिदुःखं च ददो न बा । इहामुत्र नृणां घोरं वबस्मेवाक्षशत्रवः ।।६८३॥ अर्थ-ये इन्द्रियरूपी प्रबल शत्रु शत्रुओं से भी महावुष्ट हैं । तथा इस लोक और परलोक दोनों लोकों में मनुष्यों को सब तरह के चुःख देनेवाले हैं। इसका भी कारण यह है कि शत्रु इसी लोक में थोड़ा सा दुःख देते हैं अथवा नहीं भी देते हैं किन्तु इन्द्रिय रूपी शत्रु मनुष्योंको इस लोक में भी दुःख देते हैं और परलोक में भी महादुःख देते हैं ॥६८२-६८३॥ ये इन्द्रिय शत्रु इस लोक और परलोक दोनों में दुःख देते हैं ये रोग से भी अधिक दुःखदायी हैरागेम्योऽपि महादुःखकरा: पंचाक्ष बुर्जनाः । लालिताः स्त्रोनराणां च निद्या दुर्गतिदायिनः ।। जनर्गति गोरोगा नाममा पनि नराम् । कोटी कोटास्थि पर्यन्तं दुःखं खानि च दुर्गती ।। अर्थ--स्त्री और पुरुषों के द्वारा लालन-पालन किये गये ये पांचों इन्द्रियरूपी दुर्जन रोग से भी अधिक महा दुःख देनेवाले हैं, नियनीय हैं और दुर्गति को देने वाले है । क्योंकि रोग तो मनुष्यों को कहीं-कहीं पर थोड़ा सा दुःख देते हैं परंतु ये इन्द्रियां दुर्गतियों में गालकर कोडाकोड़ी सागर पर्यंत महा दुःख देते हैं ।।६८४-६८५॥ ये इन्द्रियां कालकूट विष से भी अधिक भयंकर हैंकालकूट विषं मन्ये सुखं वैषमिकं नणाम् । प्रमजं विषमं घोरतुःखतापनिबंधनम् ॥६८६॥ कालकूटं यतो भक्तं स्वासून हरति केवलम् । सुखं वेनियनं पुंसा दसेनेकविषासुखम् ।।६८७॥ अर्थ-ये मनुष्यों के इन्द्रिय जन्म विषय संबंधी सुख अत्यंत विषय हैं तथा घोर दुःख और संताप को देनेवाले हैं इसीलिये हम इनको कालकट विषके समान ही मानते हैं । इसका भी कारण यह है कि भक्षण किया हुमा विष केवल अपने प्राणों को हरण कर लेता है परंतु इन्द्रिय जन्य सुख मनुष्यों को अनेक प्रकार के दुःख देते हैं । ॥६८६-६८७॥ स्पर्शन तथा रसना दोनों ४ घंगुल प्रमाण ही हैं फिर भी महान् अनर्थकारी हैंचतुरंगुलमानेमं जिह्वा दुःखाशुभांविका । तावन्मात्रोप्पजम्मोहो दुष्ट कामेन्द्रियः खलः ॥६८॥
SR No.090288
Book TitleMulachar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size14 MB
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