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________________ मूलाचार प्रीप तृतीय अधिकार लिये वर्षा के समान है अनुपम सुखों की निधि है और धर्मास्मा लोगों को सक्षा मान्य है इसलिये मोक्षकी इच्छा करने वालों को उच्च पद प्राप्त करने के लिये यह गंदना सदा करते रहना चाहिये ।।३७॥ उपसंहारात्मक मंगलाचरणतीर्थशान् धर्ममूलान त्रिभुवनपतिभिः सेव्यमानाघ्रियमान, सिद्धानन्तातिगान् सद्वर गुणकलिसान मानदेहानदेहान् । सूरीनाचारदक्षान् स्वपरहितकरान् पाठकान मानवान, साधून सर्वाश्चमूलोत्तरगुएजलधीनसंस्सुवेतद्गुणात्मे ॥१०३८।। इति मूलाचार प्रवीपास्ये महान थे भट्टारक श्री सफलफीति विरचते मूलगुरू व्यावन पोपको सामालिकामाला गर्णन नाम जीयोधिकारः। अर्थ-जो तीर्थकर परमदेव धर्मके मूल हैं और तीनों लोकों के समस्त इन्द्र जिनके चरण कमलों को नमस्कार करते हैं ऐसे तीर्थंकरों को मैं उनके गुण प्राप्त करने के लिये ममस्कार करता हूं। जो अनंतसिद्ध सम्यमत्व आदि पाठों श्रेष्ठ गुणों से सुशोभित हैं तथा शाम ही जिनका शरीर है और स्वयं शरीर रहित हैं ऐसे सिद्ध परमेष्ठी को भी मैं उनके गुण प्राप्त करने के लिये नमस्कार करता हूं। जो प्राचार्य पांचों आचारों को पालन करने में चतुर हैं जो उपाध्याय अपना और दूसरों का हित करने वाले हैं, जो साधु ज्ञान और ऋद्धियों से सुशोभित हैं तथा मूलगुण और उत्तरगुण के समुद्र हैं उन सबकी मैं उनके गुण प्राप्त करने के लिये स्तुति करता हूं ॥१०३८।।। इसप्रकार आचार्य सकलकोत्ति विरचित 'मूलाचार-प्रदीप' को भाषा दीका में, मूलगुणों के वर्णन में पांचों इन्द्रियों का निरोध तथा सामायिक स्तुति वंदना का निरूपण करने बाला यह तीसरा अधिकार समाप्त हुआ।
SR No.090288
Book TitleMulachar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size14 MB
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