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________________ मूलाचार प्रदीप] ( ३३७ ) [ सप्तम अधिकार जिनेन्द्र भगवान प्ररूपित गृहीतार्थ विहार एवं गृहीतार्थाश्रित विहार का स्वरूपयत: एकोगहीतार्थोविहारोखिलसद्गुणः । समर्थानां द्वितीयोन्योगृहीतार्यनसंषितः ।।२२००॥ सामान्ययोगिनांयुक्त्यात्रताभ्यां मापरः क्वचित् । बिहारस्तृतीयःसबरनुमातोजिनेश्वरः ।।२२०१।। अर्थ-इसका भी कारण यह है कि भगवान जिनेन्द्रदेव ने दो प्रकार का हो विहार बतलाया है-एक गहीतार्थ बिहार और दूसरा गृहोतार्थ के आश्रय होनेवाला विहार । जो समर्थ मुनि हैं, समस्त तत्वोंके जानकार हैं, अपने मार्ग का चरणानुष्ठान अच्छी तरह कर सकते हैं ऐसे मुनियों का समस्त गुणों से सुशोभित होनेवाला विहार गृहीतार्थ विहार कहलाता है । यदि ऐसी सामर्थ्य न हो फिर समस्त मार्गानुष्ठान को जानने वाले किसी मुनि के साय विहार करना चाहिये । इसको गृहीताश्रित विहार कहते हैं । यह विहार सामान्य मुनियों के लिये निरूपण किया गया है । इन दो विहारों के सिवाय तीसरा कोई भी विहार भगवान् जिनेन्द्रदेव ने नहीं बतलाया है ।।२२००॥२२०१।। कैसे गुणों से युक्त मुनि एकल विहार करने योग्य हैसर्वोत्कृष्टतयावादशांगपूर्वाखिलार्यवित् । सदीयंतिसस्वाथस्यादिसंहननोवली ॥२२०२॥ एकत्वभावनापनः शुरभाषोजितेन्द्रिया। चिरप्रवृजितो धीमान् जिताशेषपरीषहः ।।२२०३।। इत्याचम्यगुणग्रामोमुनिः समतो जिनः । धुतेत्रकविहारोहि नान्यस्तद्गुणवनितः ॥२२०४।। अर्थ-जो मुनि अत्यन्त उत्कृष्ट होने के कारण ग्यारह अंग और धौवह पूर्व के पाठी हैं, श्रेष्ठ वीर्ग, श्रेष्ठ धैर्य और श्रेष्ठ शक्ति को धारण करते हैं जो पहले के तीन संहननों में से किसी एक संहनन को धारण करनेवाले हैं, बलवान हैं, जो सदा एकत्व भावना में तत्पर रहते हैं, शुद्ध भावों को धारण करते हैं जो जितेन्द्रिय हैं, चिरकाल के दीक्षित हैं, बुद्धिमान हैं, समस्त परीषहों को जीतनेवाले हैं तथा और भी अन्य समस्त गुरषों से सुशोभित हैं, ऐसे मुनियों को शास्त्रोंमें एकविहारी (अकेले विहार करनेवाले) होने को प्राता है । जो इन गुणों से रहित है उनको भगवान जिनेन्द्रदेव ने एकविहारी होने की प्राजा नहीं दी है ॥२२०२-२२०४॥ __मेरे शत्रुओं को भी अकेले विहार नहीं करना चाहिएभिक्षोत्सर्गादिकालेबुगमनागमनविकम् । प्रकालेशयमियमुपवेशनमास्मनः ॥२२०५॥ विकथाकरणं यस्यस्वेच्छया जल्पनंसच। मामूवोदृशएकाको मे शत्रुरपि भूतले ॥२२०६॥ अर्थ-जो मुनि भिक्षाके समय में वा मल मूत्राविकके समय में गमन प्रागमन
SR No.090288
Book TitleMulachar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size14 MB
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