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मूलाचार प्रदीप ]
[ द्वादश अधिकार वंद्यामष्टगुणांकिता:शिषकरा:मूर्तातिगा निर्मला:,
शानांगाममयोविशन्तुसकलासिदिनिजासंस्तुताः ॥३२४२।।
अर्थ-- इसीप्रकार अनंत सिद्ध परमेष्ठी मुक्तिरूपी स्त्री के समागम से प्रत्यन्त सुखी हैं, तीनों लोकों के शिखर पर विराजमान हैं, सिद्ध पद की इच्छा करनेवाले मुनियों को ध्यान करने योग्य हैं, पहले भगवान तीर्थंकर परमदेव ने भी उनकी वंदना की है, वे सम्यक्त्व प्रावि पाठों गुणों से सुशोभित हैं, मोक्ष के देनेवाले हैं, प्रमुर्त हैं। विरल हैं और शामरूप शरीर को धारण करनेवाले हैं। ऐसे सिद्ध परमेष्ठी को मैं स्तुति करता हूं वे सिद्ध परमेष्ठी तुम लोगों के लिये अपनी समस्त सिद्धि प्रदान करें। ॥३२४२॥
समस्त साधुनों की स्तुति-- पंचाधारपरायणा: सुगरिएनः स्वाचारसंशिन,
चाचारायशिलांगपाठनिपुणामध्यापकाः साधयः । विश्वेशक्तिभरण्योगसहिता: स्वाधारमार्गोचताः,
ये ते विश्वहितंकराश्चममवोवध स्वकीपानगुणान् ।।३२४३॥
अर्थ--इस संसार में पंचाचारों के पालन करने में तत्पर तथा अपने प्राचारों को विखलाने वाले दूसरों से पालन कराने वाले जितने प्राचार्य है तथा प्राचारांगादि समस्त अंगों के पढ़ने पढ़ाने में निपुण जितने उपाध्याय हैं और अपनी शक्तिके अनुसार योगों को धारण करनेवाले अपने प्राचार मार्ग में उद्यत रहने वाले तथा समस्त जीवों का हित करनेवाले जितने साथ हैं वे सब तुम्हारे लिये और मेरे लिये अपने-अपने समस्त गुण प्रदान करें ॥३२४३॥
जन शासन की स्तुतिभरिपुभयभीतानां शरण्यं बुधाय निरुपमगुरंगपूर्णस्वर्गमोक्षकहेतुम् । गणपरमुमिसेव्यं धर्ममूख गरिष्ठं जयतु जगति बन शासनपापपूरम ॥३२४।।
अर्थ-इस संसार में यह जनशासन संसाररूपौ शत्रु से भयभीत हुए जीवों के लिये शरणभूत है, विद्वानों के द्वारा पूण्य है, उपमारहित गुणों से पूर्ण है, स्वर्गमोक्ष का एक अद्वितीय कारण है, गणधर और मुनियों के द्वारा सेवा करने योग्य है, धर्म का मूल है, सर्वोत्कृष्ट है पौर पापों से रहित है । ऐसा यह जनशासन तीनों लोकों में जयवंत हो ॥३२४४॥