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मूलाचार प्रदीप ]
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[ द्वादश अधिकार
है दुःख नहीं देती । क्षीण कषाय के अंतमें जब घातिया कर्मों का नाश हो जाता है तथ न केवली भगवान के प्रज्ञा अज्ञान और प्रलाभ परीषह भी नष्ट हो जाती हैं अतएव केवली भगवान के वेदनीय कर्म के विद्यमान रहने से उपचार से ग्यारह परीषह रह जाती है ।।३१८५-३१९२॥
केवली भगवान के रंचमात्र भी दुःख का कारण परीषह नहींघातिकर्मवलापायात्स्वकार्यकरणेऽक्षमाः । बालु दुःखमशक्ताश्च विगतान्सामा ।।३१६३ ।। अर्थ - केवली भगवान के घातिया कर्मों का नाश हो जाने से वे परीषह अपना कुछ कार्य नहीं कर सकती । तथा उन भगवान के अनंत सुख की प्राप्ति हो जाती है इसलिये वे परोधह रंचमात्र भी दुःख नहीं दे सकती ।। ३१६३ ॥
नरकादि गति में कितनी परीषह होती है ?
सर्वे शीततराः सन्ति सर्वोत्कृष्ट नारकारणां गतौ घोरास्तथातिर्यग्गतावपि ॥ ३१६४ ।। प्रशाज्ञानाभिधावर्शनालाभनान्यसंज्ञकाः । श्ररतिस्त्रीनिषद्याध्याक्रोश यांचा शेषहाः ।।३१६५ ।। सत्कारादिपुरस्कार: क्षुश्पिपासावधोप्यमी । सन्ति देवगसौस्वहपाश्चतु वंशपरोषहाः ।। ३१६६।।
अर्थ - नरकों में नारकियों के और तियंचगति में तियंत्रों के समस्त परीषह होती हैं तथा प्रत्यन्त तीव्र और उत्कृष्ट होती हैं। देव गतिमें प्रज्ञा, अज्ञान, प्रदर्शन, अलाभ, नाग्न्य, अरति, स्त्री, निषद्या, आक्रोश, यांचा सत्कार पुरस्कार, क्षुधा, पिपासा और बध ये चौदह परीषह बहुत थोड़े रूपमें होती है ।। ३१९४-३१६६॥
ध्यानादि द्वारा परीषह सहने की प्रेरणा
एते परोषहाविश्वे कर्मजाः कर्महानये । सोडण्याः संयतः शक्त्या ध्यानाध्ययनकर्मभिः ॥ ३१६७॥ अर्थ - ये समस्त परीषह कर्मों के उदय से उत्पन्न होती है । इसलिये मुनियों को अपने कर्म नष्ट करने के लिये अपनी शक्ति के अनुसार ध्यान और अध्ययन यादि कार्यों के द्वारा अवश्य सहन करनी चाहिये ॥३१६७॥
मुनिराज किस प्रकार परीषद् रूपी योद्धाओं को जीतते हैं
चारित्रगरेबोरे परोष महाभटाः । वैजिताः ससपो कार्णवं तथावापितं हैः ।। ३१९८ ।। तेषां नश्यति कर्माणि पंचाक्षसस्करं : समम् । ठोकले त्रिजगरुलक्ष्मी किचिमास हाचिरात् ।।३१६९। अर्थ - अपने चारित्र में अखल रहनेवाले जो मुनिराज चारित्ररूपी घोर युद्ध में चारित्र रूपी धनुष पर श्रेष्ठ तप रूपी बाण चढ़ाकर परीषह रूपी महा योद्धाओं को