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मूलाचार प्रदीप ]
( ४८५ )
[ द्वादश अधिकार
जताया वेदमाया यम्महत्याः सहनं बुधैः । कर्महायंत्र तोकारं विना रोगजयोत्र सः ॥ ३१६२ ।।
अर्थ -- जो मुनिराज अपने कर्मों को नाश करने के लिये कोढ़, उदर शूल, बातचर, पित्तज्वर प्रादि अपने पाप कर्मों के उदय से उत्पन्न हुए और समस्त दुःख को देनेवाले ऐसे सैकड़ों असह्य रोगों की महा वेदना को भी बिना प्रतिकार या इलाज कराये सहन करते हैं उन बुद्धिमानों के रोग परिषह जय कहलाती हैं ॥३१६१
३१६२।।
arrer परीष जय का स्वरूप
शुकपणादीन स्पर्शनेश्चमखशः । जातकं विकारावेस्स्यतदेह महात्मभिः ।। ३१६३ ।। क्लेशावृतेघनाशाय सहनं यद्विधीयते । शिशुद्धभा स तृणस्पर्शपशेषह अयोत्रसः ॥ ३१६४ ।।
अर्थ --- अपने शरीर से ममत्व का त्याग कर देनेवाले जो सुनिराज अपने पापों को नाश करने के लिये मन-वचन-काय की शुद्धता पूर्वक वायु से उड़कर श्राये हुए सूखे पत्ते वा तृण आदि के स्पर्श से उत्पन्न हुई खुजली आदि के विकार को सहन करते हैं, उसमें किसी प्रकार का क्लेश नहीं करते उसको तृणस्पर्श परिषह जय कहते हैं ।
।। ३१६३-३१६४ ॥
मल परीषद् जय का स्वरूप
मलजल्ला विलिप्तांगंप्रियते यद्विशनिभिः । संस्कारक्षालमातीतमनुं दग्धवप्रमम् ।।२१६५ ।। स्नानादीन् दूरतस्त्यश्वायायैरागहानये । दुष्कर्ममलनाशायमलधारा मे वतत् ॥ ३१६६ ॥
अर्थ- जो वीतराग मुनिराज जीवों को दया पालन करने के लिये, राग को नष्ट करने के लिये और पापकर्म रूपी मल को नाश करने के लिये स्नान श्रादि को दूर से ही त्याग कर देते हैं और संस्कार वा प्रक्षालन आदि से रहित आधे जले हुए मुरदे के समान मल पसीना नाक का मल आदि से लिप्त हुए शरीर को धारण करते हैं उसको मल परिषद् जय कहते हैं ।। ३१६५.३१६६॥
सत्कार पुरस्कार परीषद् जय का स्वरूप
नमःस्तवप्रशंसादि सरकारउच्यतेबुषं । प्रप्रतः करणं यात्रादेः पुरस्कारएव सः ।।३१६७ ।। ज्ञानविज्ञानसम्पन्नैस्तपः सद्गुखशालिभिः । द्विघवस्त्यमले सत्कार पुरस्कारएव सः ।।३१६८ ।।
अर्थ - नमस्कार करना, स्तुति करना, प्रशंसा करना आदि सत्कार कहलाता है तथा चलते समय यात्राबिक में उनको आगे रखना स्वयं पीछे चलना पुरस्कार