________________
मूलाचार प्रदीप ]
( ४८६)
_[ द्वादश पशिकार कहलाता है । जो मुनिराज ज्ञान विज्ञान से सुशोभित हैं और तपश्चरण प्रादि अनेक सद्गुणों से विभूषित हैं, ऐसे मुनिराज इन दोनों सत्कार पुरस्कार का त्याग कर देते हैं, कोई सत्कार पुरस्कार न करे तो खेद नहीं करते उसको सत्कार पुरस्कार परोषह जय कहते हैं ॥३१६७-३१६८।।
प्रज्ञा परीषह जय का स्वरूपमहविद्वान् जगद्वेता पलीवाइमे जडाः । फिचितत्त्वं न जानन्तिहीत्यादिगर्वएव यः ॥३१६६।। सर्वांगपूर्वविद्धिश्चनिधार्यतेमदान्तकः । सद्वादिभिमहाप्राज्ञः प्रजाजय स जितः ।।३१७०।।
अर्थ-जो मुनि ग्यारह अंग चौदह पूर्व के जानकार हैं, महा बुद्धिमान है, वाव वियाद करने में सर्वश्रेष्ठ हैं और अभिमान से सदा दूर हैं तो भी वे अपने मन में ऐसा अभिमान कभी नहीं करते कि मैं विद्वान हूं, संसार के समस्त तत्त्वों को जानता हूँ, बाकी के ये लोग सब बैल के समान मूर्ख हैं, तत्त्वों का स्वरूप कुछ भी नहीं जानते इसप्रकार के अभिमान को वे सदा के लिये त्याग कर देते हैं उसको प्रज्ञा परोषह जय कहते हैं ॥३१६९-३१७०॥
अज्ञान परीषह जय का स्वरूपप्रज्ञोयं देतिकिचिन्न परमार्थपशूपमः । इत्याविकटकालापसहनयज्जनोबम् ।।३१७१॥ ईदृशंदुद्धरं घोरं तपो में कुर्वतोनघम् । अद्याप्युस्पद्यते कश्चिद जानातिशयो त्र न ।।३१७२।। इत्यावि बहुकालुष्यमनसोयभिहन्यते । स्वल्पशानिभिरज्ञानपरीषह जयोहि सः ।।३१७३।।
अर्थ-जो मुनि स्वल्पज्ञानी हैं उनके लिये अन्य दुष्ट लोग “यह अज्ञानी है यह परमार्थ को कुछ नहीं जानता पशु के समान है" इसप्रकार कड़वे वचन कहते हैं तथापि वे उनको सहन करते हैं तथा "मैं इसप्रकार का दुर्धर और घोर और पापरहित तपश्चरण करता हूं तो भी मुझे ज्ञान का कुछ भी अतिशय प्रगट नहीं होता श्रुतज्ञान वा अवधिज्ञान प्रगट नहीं होता" इसप्रकार की कलुषता अपने मन में कभी नहीं लाते उसको अज्ञान परीषह जय कहते हैं ।।३१७१-३१७३॥
अदर्शन परीषह जय का स्वरूपप्रातिहार्यारिणकुर्वन्ति सुराःसद्योगधारिणाम् । महातपस्विनामेतत्प्रलापमात्रमेव हि ॥३१७४।। यतो मे बुद्ध रानुष्ठानसत्तपोषिधायिनः । विख्यातोतिशयःकश्चिज्जालेनामरैः कृतः ॥३१७५।। प्रज्यानथिकात्रेत्रमित्यादिस्त्यज्यते च यः। संकल्पोदग्विशुमधा हि सोऽदर्शनभयो बुधः ।।७६।।