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मूलाचार प्रदोप]
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[एकाददा अधिकार निदा करने से इस लोक में भी इसकी हानि होती है और परलोक में भी इसकी हानि होती है । इसमें मेरी कुछ हानि नहीं होती इसप्रकार चितवन कर और मौन धारण कर उन मुनिराज को उस दुष्ट के दुर्षचन सहन कर लेने चाहिये ।।२८६६-२६०१॥
क्रोध से ताड़नादि करनेपर मुनिराज किस प्रकार चितवन करते हैंअथवायधयोःकश्चित्साधुताडयतिकुषा । सदेत् साधुना निसे चिन्तनीयक्षमाकरम् ॥२६०२।। हन्त्येवायंकुषीमित्राणान हरतिनजिसा । अस्मान्मे लाभएबावनबहानिरक्षयात् ।।२९०३।।
पात्रायवषबंधाध में पापं हरतिस्फुटम् । नच पुण्यमतोस्यवहानि डिममोजिता ॥२६०४॥ अथवामनिपुरवायाभवे ताडितो भया । ततो मा ताडयत्यत्रोषोमेऽस्य न जातुचित् ।।२६०५।।
अर्य-यदि कोई मूर्ख क्रोध में आकर किसी साधु को ताड़ना करे मारे तो उन मुनिराज को अपने चित्तमें क्षमा की खानिरूप ऐसा चितवन करना चाहिये कि यह मूर्ख मुझे मारता ही है, मेरे प्राणों का हरण तो नहीं करता अतएव इसमें मेरा लाभ ही है, मेरी हानि कुछ नहीं है, मेरे तो इसमें पाप नष्ट होते हैं, असाताकर्मों को निजरा होती है । इसप्रकार चितवन करना चाहिये । अपना इसका विगतमा गहिये कि यह मूर्ख मुझे मारकर वा बांधकर मेरे पापों का हरण करता है, मेरे पुण्य को तो हरण नहीं करता ? इसलिये ऐसा करने में इसकी तो हानि है और मेरे लिये लाभ हैं। अथवा उन मुनिराज को इसप्रकार चितवन करना चाहिये कि यह मेरे पहले भव का शत्र है, मैंने पहले भय में इसको मारा होगा इसलिये यह इस भव में मुझे मारता है, यह तो मेरा ही दोष है इसमें इसका क्या दोष है ।।२६०२-२६०५॥
अपने ही कर्म का उदय जान मुनिराज क्षमा धारण करते हैंप्राग्भवे वा कृतं कर्म घसन्मयंवभुज्यते । निमित्तमात्रमत्रेमं मन्ये दुःखादिकारकम् ।।२९०६।। मदोयमपिच्चित्तं व्रजेत्क्रोधाग्निसन्निधिम् । प्रज्ञस्यास्यविदोमेत्र कोविशेषस्तवापृयक् ।। २६०७।।
अर्थ- अथवा उन मुनिराज को इसप्रकार चितवन करना चाहिये कि मैंने पहले भवों में जो कर्म किए हैं वे मुझ ही भोगने पड़ेंगे। यह प्राणी तो उन कर्मों के उदय से होनेवाले दुःखों में केवल निमित्त कारण है। मुख्य कारण तो मेरे ही कमों का उदय है। यदि इस समय मेरे हृदय में भी क्रोध उत्पन्न हो पाये तो फिर इस मूर्ख में
और मुझ ज्ञानी में अलग-अलग विशेषता क्या होगी? फिर तो दोनों ही समान हो जायेंगे ।।२६०६-२६०७।।