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मूलाचार प्रदीप]
(४४५)
[एकादश अधिकार साधु किस प्रकार चितवन करते हुये निदा आदि के बचन सहते हैंपविकस्विस्कुधीः कुर्यात्सायोनिम्दा तवाममी ! हबीतिचिन्तयेतेयोषाःसन्ति न वा मयि ॥४॥ विद्यते पवियोषोमे नचास्यसत्यभाषणात् । बोषाभावेथवाऽज्ञामाद्वक्त्येष ममदूषणम् ।।२८६५।। न मारपतिमा मे न किधिद्गृह्णातिसद्गुणम् । इत्याविचिन्तनस्तेन सोढव्यंनिन्दनादिकम् ।।६६॥
अर्थ-यदि कोई दुष्ट पुरुष किसी साधु को निवा करता हो तो उस समय उस साधु को अपने मनमें विचार करना चाहिये कि मुझमें ये दोष है वा नहीं । यदि मुझमें ये दोष है तो इसका कोई दोष नहीं है, क्योंकि यह तो सत्य भाषण कर रहा है । यदि सपने में ये दोष न हों तो उनको विचार करना चाहिये कि यह अपने अज्ञान से मेरे दोषों को कहता है, मुझे मारता तो नहीं है अथवा मेरे श्रेष्ठ गुणों को तो ग्रहण नहीं करता अथवा नहीं छीनता, इसप्रकार चितवन कर उन मुनियों को अपनी होने वाली निवा को सहन करना चाहिये ॥२८९४-२८६६॥
किस प्रकार के चितवन से गाली प्रादि के वचन सहते, क्षमा भाव धरते हैंयवि कश्चित्परोक्षेणमुनिमाकोशतिधा । तदेति मुनिना ध्येयकोषाग्निजलवोपमम् ॥२८१७॥ प्राक्रोशति परोक्षेसं प्रत्यक्षे मां न पापधीः । साभोस्मान्मम मवेतिक्षतव्यं तेन तस्कृप्तम् ।।
अर्थ-यदि कोई दुष्ट पुरुष क्रोध में आकर परोक्ष में किसी मुनि को गालो देता हो वा कड़वे बुरे वचन कहता हो तो कोष रूपी अग्नि को बुझाने के लिये मेघ के समान उन मुनि को इसप्रकार चितवन करना चाहिये कि यह पापो परोक्ष में ही मुझे गाली देता है, प्रत्यक्ष में आकर तो गाली नहीं देता मेरे लिये यही बड़ा लाभ है । यही समझ कर उन मुनियों को उस दुष्ट का अपराध क्षमा कर देना चाहिये ।।२८९७२८६८।।
दुष्ट दुर्वचन सहन करने की प्रेरणाभाक्रोशतियति कश्चित्प्रत्यक्षेण दुरात्मकः । तदेतिचिन्तनोमंसन्मुनिना कोपनाशकम् ॥२८६६।।
ददाति केवल मेयंगाली हन्ति न मां शाठः । गालीभिः किरणान्यत्र जायन्समेऽशुभानि का।। प्रतोत्रामुनहानिएचास्वनिन्दनतो न मे। विधिस्येतिस्वमानेन सोडव्यं तेन दुर्वचः ।।२९०१॥
__अर्य-यदि कोई दुरात्मा प्रत्यक्ष में ही आकर किसी मुनि को गाली देवे तो उस मुनि को क्रोध को नाश करनेवाला इसप्रकार का चितवन करना चाहिये कि यह मूर्ख मुझे गाली ही देता है, मुझे मारता तो नहीं है, गाली से मेरे घाव थोड़े ही हुए जाते हैं अथवा मेरी कुछ हानि थोड़ी ही होती है। पवि वास्तव में देखा जाय तो मेरी