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मूलाधार प्रदीप ]
( ४४९ )
[ एकादश अधिकार
श्रयं - इस संसार में क्रोध के समान अन्य कोई अग्नि नहीं है क्योंकि यह क्रोध समस्त संसार को जला देने में समर्थ है । इसीप्रकार क्षमा के समान इस संसार में कोई प्रभृत नहीं है क्योंकि इस क्षमा से तीनों लोकों के प्राणी अत्यन्त संतुष्ट हो
जाते हैं ।।२२० ।।
क्रोध करनेवाले जीवों की हानि --
द्वीपायनः कोपेनवाद्वारावतीं मुनिः । सर्वा स्वस्य शरीरचागासेजसेन दुर्गतिम् ।।२६२१।। क्रोधेनाघार्जनं कृत्वा बहवो नारवादयः । 'रौद्रध्यानाद्गताः श्वभ्रं स्त्रीश्यनाविरहिता श्रपि ॥ २२ ॥ अर्थ- देखो द्वीपायन मुनि ने क्रोध कर तेजस समुद्धात के द्वारा समस्त में परो नरकरूप दुर्गति
द्वारिका नगरी जला डाली, अपना शरीर
में जाना पड़ा। इनके सिवाय स्त्री धन श्रादि से रहित ऐसे नारद आदि बहुत से प्राणी क्रोध के कारण अनेक पापों को उपार्जन कर अंत में रौद्रध्यान से मर कर नरक पहुंचे हैं ।। २६२१-२६२२॥
फोध अग्नि के समान आत्मिक गुणों को नष्ट करता है
कोपाग्नि साधस्य कायकुटोरके । तस्यदृष्टद्यादिरत्नानि भस्मीभावंत जन्त्यतः | २६२३|| पूर्व दहति कोपाग्निहं ततोपरान् जनान् । इहपुंसां च धर्मावीन् वत्तेमुत्रह्मषोगतिम् ।।२१२४ ॥
अर्थ - जिस साधु के शरीररूपी झोंपड़ी में क्रोधरूपी अग्नि लग जाती है, उसके सम्यग्दर्शन आदि समस्त रत्न अवश्य ही जलकर भस्म हो जाते हैं । यह क्रोधरूपी अग्नि पहले तो अपने शरीर को जलाती है, फिर अन्य प्राणियों को जलाती है और फिर उन साधुनों के धर्मादिक गुणोंको नष्ट करती है तथा फिर अंतमें परलोक में नरकादिक अधोगति को देती है ।।२६२३-२६२४।।
जिनेन्द्रदेव क्रोध करनेवाले को क्या समझते हैं
यदि को क्वचित्कुर्यान्नग्नो वा श्रीवराष्टतः । सदा नीचो जिनेः प्रोक्तः सोमयजावपिपापचीः ।। अर्थ – यदि कोई नग्न साधु वा एक कोपीन मात्र रखने वाला एलक वा क्षुल्लक कहीं पर क्रोध करता है तो भगवान जिनेन्द्रदेव उस पापी को चांडाल से भी नोध समझते हैं ।। २६२५।।
अनेकों दोषों को उत्पन्न करनेवाले क्रोध को मुनि कैसी तलवार से नाश करते हैंन क्रोधेन सभो मेरो सर्वानर्थाकोशुभः । इहामुत्रमनुष्याणां सप्तमम्वनकारकः ।। २९२६ ।।