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मूलाचार प्रदीप
( ४५३ )
[एकादश अधिकार सरल बुद्धि को धारण नहीं करते, उनके तप और ध्यानादिक सब नित्य द्रव्य के समान व्यर्थ हैं, स्वप्न में मिले हुए राज्य के समान निष्फल हैं और विष मिले हुए दूध के समान हानि करनेवाले हैं ।।२९४७-२६४६।।
मायाघारी रूप क्रियानों का फल एवं असे त्यागने की प्रेरणामायाविनां तपोधर्मसंसमो वा शुभक्रिया । स्वयतो मिश्वितमायानतियंगतिभवेत् ॥२४॥ मत्वेति दूरतस्त्यवत्वामायावाक्यादिमंजसा । ऋजुयोगेन कुर्वाध्वमानवमुक्तयेषाः ।।२६५०॥
अर्थ-मायाचारी पुरुषों के तप, धर्म, संयम धा शुभ क्रियाएं कुछ नहीं बन सकती, क्योंकि यह निश्चित है कि मायाचारी से उत्पन्न हुए पाप के कारण मायाचारियों को लियच गति की ही प्राप्त होती है। यही समझकर बुद्धिमानों को मोक्ष प्राप्त करने के लिये मायाचारी से मिले हुये मन-वचन-काय को दूर से हो त्याग कर देना चाहिये और मन-वचन-काय की सरलता धारण कर प्रार्जव धर्मका पालन करना चाहिये ॥२६४६-२६५०॥
___ सत्यधर्म का लक्षण एवं उसे धारण करने का फलस्वान्येषां हितमुद्दिश्य धर्मतत्त्वार्यगभितम् । यतेयवचस्तथ्यं सारं सिद्धान्तवेदिभिः ।।२९५१ भाषासमितिमालंव्य सत्सत्यं धर्मलक्षणम् । ज्ञानबोजं जगन्मान्यं कर्मघ्नं मोक्षकारणम् ।।२६५२॥ सत्येन विमला कोतिभ्र मेल्लोकत्रयेसताम् । महाधनश्च जायेत ज्ञानाय : सद्गुणः सह ।२६५३।। विजगच्छीः परं सौख्यं जगत्पूज्या च भारतो । सर्वसवंभवंसत्याल्सभ्यतेसत्यवादिभिः । २६५४।।
अर्थ-सिद्धांत को जाननेवाले जो मुनि अपने और दूसरों के हित को ध्यान में रखते हुए धर्म और तत्वों के अर्थों से सुशोभित यथार्थ और सारभूत वचन कहते हैं तथा भाषा समिति को आलंबन कर वचन कहते हैं, वह सत्यधर्म का लक्षण है। यह सत्यधर्म ज्ञानका बीज है, तीनों लोकों में मान्य है, को को नाश करनेवाला है और मोक्ष का कारण है। इस सत्यधर्म के कारण सज्जनों की निर्मल कोति तीनों लोकों में फैल जाती है और सम्यग्ज्ञानाविक श्रेष्ठ गुणों के साथ-साथ उनको महाधर्म की प्राप्ति होती है। सत्यवादियों को इस सत्यधर्मके प्रभाव से तीनों लोकों की लक्ष्मी प्राप्त होसी है, परम सुख की प्राप्ति होती है, तीनों लोकों में पूज्य ऐसी सरस्वती की प्राप्ति होती है और सर्वज्ञ को विभूति प्राप्त होती है ॥२६५१-२६५४॥
असत्य बोलने का फल एवं सत्य बोलने की प्रेरणा-- माजस्वमुखरोगस्वं स्वाकोतिदुःसमंजसा । दुर्गति ध महत्पापलभन्तेमतभाषिणः ॥२९५५।।