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मूलाधार प्रदीप]
[ एकादश अधिकार लोभिना लोभपापेनदारिन दुःखमुल्बम | बुगंतो भ्रमणं पापंदुनिं चाशुभो भवेत् ।।२६६२॥
अर्थ-निर्लोभी पुरुषों को इस शौचधर्म के प्रभाव से तीनों लोकों में उत्पन्न होनेवाली महा लक्ष्मी प्राप्त होती है तथा मोक्ष लक्ष्मी स्वयं आकर प्राप्त हो जाती है और उनका सर्वोत्कृष्ट यश तीनों लोकों में फैल जाता है । लोभी पुरुषों को लोभ रूप पाप से दरिद्रता उत्पन्न होती है, घोर दुःख प्राप्त होते हैं, अनेक दुर्गतियों में परिभ्रमण होता है, महा पाप उत्पन्न होता है, निध अशुभध्यान होता है और अशुभ कर्मों का बंध होता है ।।२६६१-२६६२।।
किसके द्वारा लोभ रूपी शत्रु को नष्ट करना चाहियेमवेत्याहत्यलोमारिसम्सोषखड्गधासतः । अन्तः शौचं विधातष्यवृधमुक्त्यै नमाइते ।।२६६३॥
अर्थ--यही समझकर बुद्धिमान् मुनियों को मोक्ष प्राप्त करने के लिये संतोष रूपी तलवार की चोट से लोभ रूपी शत्रु को मार डालना चाहिये और बिना जल के अंतरंग शौच को धारण करना चाहिये ।।२६६३॥
____ संयम धर्म का स्वरूप निदेशमनः पञ्चेन्द्रियाणायद्रोधनपरिरभरणम् । षड्जीवानांत्रिशुद्धघा घाचर्यतेत्रममभिः ॥२९६४॥ संपमः स जिनः प्रोक्तः सामाग्मुक्तिनिवन्धनः । तपोशानधर्मादिगुणानांशुद्धकारकः ।।२९६५।।
अर्थ-मोक्ष की इच्छा करनेवाले मुनि लोग मन-वचन-काय को शुद्धतापूर्वक जो मन और पांचों इन्द्रियों का निरोध करते हैं तथा छहों काय के जीवों की रक्षा करते हैं उसको भगवान जिनेन्द्रदेव संयम कहते हैं । यह संयम मोक्ष का साक्षात् कारण है तथा तप सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और धर्माविक समस्त गुणों को शुद्ध करनेवाला है ।।२९६४-२६६॥
संयम के भेद एवं उनके स्वामी का निर्देशउपेक्षापहृताभ्यां स संयमोद्विविधोमतः । पायउत्कृष्टकायामांद्वितीयोऽपरयोगिनाम् ।।२९६६।।
अर्थ-अथवा उपेक्षा संयम और अपहृत संयम के भेद से इस संयम के वो भेद हैं । उत्कृष्ट शरीर को धारण करनेवालों के उपेक्षा संयम होता है और अन्य मुनियों के अपहृत संयम होता है ।।२६६६।।
उपेक्षा संयम एवं अपहृत संयम का स्वरूप निर्देशउत्कृष्टांगवलावस्यविदस्त्रिगुप्तिधारिणः । रागद्वेषाधभाषो यः उपेक्षासंयमोम सः ॥२९६७॥