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मूलाचार प्रदीप ]
( ४७४ )
[ द्वादश अधिकार मत्वेति संवरं बक्षाकुर्वन्त्येक शिवाप्तये । परीवह जयज्ञानसद्धपानसंयमादिभिः ।।३०६३।।
अर्थ-जिस महात्मा ने युक्तिपूर्वक अपने कर्मों को रोक कर संवर धारण किया है, उसीके समस्त इष्ट पदार्थों की सिद्धि होती है। उस संवर के बिना तपश्चरण भी सब निष्फल समझना चाहिये । यही समझकर चतुर पुरुषों को मोक्ष प्राप्त करने के लिये परीषहों को जीतकर, सम्यग्ज्ञान की बात कर, श्रेष्ठध्यानको धारण कर और संयम को पालन कर एक संवर ही सिद्ध कर लेना चाहिये ।।३०६२-३०६३।।
निर्जरा का स्वरूप एवं उसके भेदरुखास्रवमहर्षे चारित्रसदगुणभागिनः । तपोभिकरेंमुक्तिजननोनिर्जराभवेत् ॥३०१४॥ निर्जरा सा द्विधाशेयादेशतः सर्वतोनणाम् । स्वकर्मवंशतोवेशनिर्जरान्यतपो भवा ॥३०६५॥
अर्थ-जिन महामुनियों ने समस्त प्रालय को रोक दिया है और जो चारित्ररूपी श्रेष्ठ गुण को धारण करते हैं उनके कठिन-कठिन तपश्चरणों के द्वारा मोक्ष को देनेवाली निर्जरा होती है । बह निर्जरा दो प्रकार की है-एक एकदेश निर्जरा और दूसरी सर्वदेश निर्जरा । उनमें से एकदेश निर्जरा अपने-अपने कर्मों के उदय से होती है और सर्वदेश निर्जरा तपश्चरण से होती है ।।३०६४-३०६५॥
एक देश एवं सर्वदेश निर्जरा का लक्षणचतुर्गतिःसर्वेषांभ्रमतां कर्मणां क्षयात् । श्रमाद्यानिर्जराजाला साहेयावेशनिर्जरा ॥३०६६।। संवरेण समं यत्नात्तपोभिर्याबुधः कृता। विपुला मुक्तिसंसिद्ध सा प्राशासनिजरा ॥३०६७।।
___अर्थ-चारों गतियों में परिभ्रमण करसे हुए जीवों के कर्मों के क्षय होने से जो निर्जरा होती है उसको देश निर्जरा कहते हैं । ऐसी निर्जरा सदा त्याग करने योग्य है । बुद्धिमान् लोग जो मोक्ष प्राप्त करने के लिये संवर के साथ-साथ तपश्चरण के द्वारा प्रयलपूर्वक बहुत से कर्मों को निर्जरा करते हैं उसको सर्वनिर्जरा कहते हैं। वह निर्जरा ग्रहण करने योग्य है ॥३०६६-३०६७॥
___ कौन जीव अत्यन्त शुद्ध होता है-- अग्निना धातुपाषाणो यथाशुद्धपतियोगतः । तथा तपोग्निनाभव्यः कृतःसंदरनिजरः ।।३०१८॥
अर्थ-जिसप्रकार अग्निके द्वारा धातुपाषाण (जिस पाषाणमें सोना वा चांदी निकले) युक्तिपूर्वक शुद्ध करने से शुद्ध हो जाता है उसीप्रकार तपश्चरणरूपी अग्नि से संवर और निर्जरा को करनेवाला भव्य जीव अत्यन्त शुद्ध हो जाता है ॥३०६८