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मूलाचार प्रदीप]
( ४८१ )
[द्वादश अधिकार सहन करते हैं ।।३१३५-३१३६।।
किस प्रकार की गर्मी से शीत वेदना दूर करते हैंतथाध्यानोमणा योगी शीतवाघानिवारयेत् । मनाप्रावरणान्यादीन्शीतशास्त्येचिन्तयेत् ।।
अर्थ- उस समय वे मुनिराज ध्यानरूपी गर्मी से अपनी शीत वेदना को दूर करते हैं और उस शीत की वेदना को शांत करने के लिये न तो किसी के ओढ़ने का चितवन करते हैं और न अग्नि आदि शीत को दूर करनेवाले पदार्थों का चितवन करते हैं ॥३१३७॥
किस प्रकार के चितवन से उष्ण वेदना जीतते हैंग्रीष्मोग्रभास्करोषणांशुपित्तरोगपथनमः । प्रातापनमहायोगक्षारामाननादिभिः ॥३१३६॥ दुस्सहोष्णमहातापो जायते वनवासिनः । निराश्रयपशुनको नारकारणां विशात ।।३१३६।। जातीषणचिन्तनमासासबजानामृतपानतः । उष्णदुःखं जयेशाम्बसेकावगाहनादिभिः ॥३१४०।।
अर्थ- गर्मी के दिनों में जब सूर्य की किरणे अत्यन्त तीव और उष्ण होती हैं वा पित्त रोग हो जाता है अथवा मार्ग के चलने से परिश्रम बढ़ जाता है या वे मुनिराज आतापन महा योग धारण कर लेते हैं अथवा वे अधिक लवण मिला हुआ अन्न ग्रहण कर लेते हैं उस समय वन में निवास करनेवाले उन मुनियों के प्रसह्य गर्मी का महा संताप उत्पन्न होता है। उस समय वे निराश्रय पशुओं के, मनुष्यों के वा नारकियों के कर्मों के उदय से होनेवाली तो उष्ण वेदना का चितवन करते हैं और श्रेष्ठ ज्ञानरूपी अमृतका पान करते हैं, इन दोनों कारणों से वे उस गर्मों को वेदना को जीतते हैं। वे मुनिराज पानो के छिड़काव से या पानी में नहाने से गर्मी को बाधा को कभी दूर नहीं करते ॥३१३८-३१४०॥
दंशमशक परीषह जय का स्वरूपदशेरचनशकः सर्वैर्मक्षिकारकादिभिः । भक्षमागोत्र हिरवस्त्रो आमूलाविषुस्थितः ॥३१४।। न मनाकखिचतेयन्त्रध्यानीध्यानचलेन च । परीषहजयो नेयः स दंशमशकालयः ।।३१४२॥
अर्थ-जो मुनि दिगम्बर अवस्था को धारण किये हुए किसी वृक्ष के नीचे विराजमान हैं, उस समय यदि कोई डांस, मच्छर, मक्खी, बोछु प्रावि कीड़े मकोड़े उन्हें काट लेते हैं तो ये मुनिराज अपने मन में रंघमात्र भी खेद खिन्न नहीं होते और न वे