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मलाचार प्रदीप
( ४८२ )
[ द्वादश अधिकार ध्यानी अपने ध्यान से चलायमान होते हैं इसको दंशमशक परोषह विजय कहते हैं । ॥३१४१-३१४२॥
नाम्न्य परीषह जय का स्वरूपनग्नस्वेन च ये जाताः शीतोष्णाबाउपद्रवाः । शरीरविक्रिया जोवभक्षणेहंसनादिभिः ॥३१४३॥ सह्यन्ते यत्रधर्येण ते संक्लेशाद्विनान्यहम् । विगम्बरधरंजेयो नाग्न्यदोषजयोत्र सः ॥३१४४॥
अर्थ-नग्न अवस्था धारण करने से बहुत से ठंडो गर्मों के उपद्रव होते हैं, अनेक जीव काट लेते हैं, शरीर में कोई विकार भी हो जाता है और अनेक दुष्ट लोग भी उनको देखकर हंसते हैं, इन सब उपद्रयों को वे दिगम्बर अवस्था को धारण करने वाले मुनिराज बिना किसी प्रकार के संक्लेश परिणामों के धैर्य के साथ प्रतिदिन सहन करते हैं इसको नाग्न्य परीषह जय कहते हैं ।।३१४३-३१४४।।
अरति परीषह जय का स्वरूपअरण्यवासशीतोष्णोग्नतपश्चरणादिभिः । शब्दर्भयानकांतारतिः सिंहादिनिशि ॥३१४५।। मुनिभिर्जायते यात्र रति कृत्वागमामृते । ध्यानजानरतःस्याचारतिवाधाजमोऽत्र सः ॥३१४६।।
अर्थ-वन का निवास, शीत उष्ण की बाधा, उग्र तपश्चरणादिक और सिंह व्याघ्र प्रादि के भयानक शब्दों से रात के समय प्रति के कारण प्राप्त होते हैं तथापि ज्ञान ध्यान में लीन रहनेवाले वे मुनिराज श्रागमरूपी अमृत में प्रेम करते हुए उस अरति को बाधा को जीतते हैं इसको अरति परीषह जय कहते हैं ॥३१४५३१४६॥
- स्त्री परीषह जय का स्वरूपहावभावविलासांगापभ्र विकार जल्पनैः । कटाक्षशरविक्षेपः शृंगाररसदर्शनः ।।३१४७।। उन्मत्तयौवनास्त्रीभिः कृतोनोंत्तान्तकः । सहतेयोगिभिर्योपस्त्रोवाधाजयएव सः ।।३१४८।।
अर्थ-कोई मुनिराज किसी एकांत स्थान में विराजमान हों और वहां पर उन्मत्त यौवनवती स्त्रियां प्राकर हाव, भाव, बिलास, शरीर के विकार, मुखके विकार, भोहों के विकार, गाना बजाना बकवाद करना, कटाक्षरूपी वारणों का फेंकना और श्रृंगार रस का दिखाना प्रावि कितने ही कारणों से व्रतों को नाश करनेवाला अनर्थ
करती हो तो भी वे मुनिराज निर्विकार होकर उस उपद्रव को सहन करते हैं। इसको . . .त्री परीषह जय कहते हैं ।।३१४७.३१४८॥