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मूलाचार प्रदीप ]
( ४७६ )
[ द्वादश अधिकार
की इच्छा करनेवाले मुनियों को इन बारह भावनाओं का चितवन सदा करते रहना चाहिये ।।३१२२ ।
परीषों के कथन की प्रतिज्ञा
मुनीनां येयसोढव्याः परोषहाश्चतानिह । मार्गाच्यवन शुष्क में निर्जरार्थं विशाम्यहम् ॥३१२३ ॥ अर्थ- मुनिराज अपने चारित्रमार्ग से वा मोक्षमार्ग से व्युत न होने के लिये तथा पाप कर्मों की निर्जरा करने के लिये जिन परीषहों को प्रवश्य सहन करते हैं। उनको मैं पहला हूँ
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२२ परीषहों के नाम निर्देश-
क्षु पिपासाशीतोष्णादयो वंशमशकालयः । नाग्न्यारत्यभिषौस्त्रीश्चर्या निषद्यापरीषही ॥३१२४॥ शय्याक्रोशो वषोर्याचाला भोरोगपरोषहः । तृास्पर्शोमलः सत्कारपुरस्कारसंज्ञकः ।। ३१२५ ।। प्रज्ञाशान्यभिधादर्शनान्येतेपरोषहाः । सोढय्या यतिभिनित्यंद्वाविंशतिः शिवालये ।। ३१२६ ।।
अर्थ- क्षुधा, पिपासा, शीत, उष्ण, दंशमशक, नाग्नन्य, अरति, स्त्रीचर्या, निषद्या, शय्या, श्राक्रोश, वध, यांचा, अलाभ, रोग, तृणस्पर्श, मल, सत्कार, पुरस्कार, प्रज्ञा, अज्ञान और प्रदर्शन ये बाईस परोषह हैं । सुनियों को मोक्ष प्राप्त करने के लिये इन परीषहों को अवश्य सहन करना चाहिये ।। ३१२४-३१२६ ॥
क्षुधा परिषह को जीतने के लिये किस प्रकार चिन्तवन करना चाहिये - षष्ठाष्टकपक्षा पवासालाभकारणः । उत्पद्यतेमुनेः स्वान्तर्दाहिन्यग्निशिखेव भूत् ।।३१२७ ।। वातेन तदाश्वित्तेस्मरणीयमिवं स्फुटम् । ग्रहो परवशेनात्रयाप्ता देवनामया ।। ३१२८ ।। गतवन्दिगेहाथं : जलस्थलखगादिषु । तिर्यग्गतौतिरोषार्थश्वभूषु भ्रमता चिरम् ।।३१२९ ।। तस्या इयं किमात्रा विचिन्त्येति शिवापिना । जेसच्या वेवमा क्षुज्जा सम्तोषासेननान्यथा ||३०१
अर्थ - किसी मुनिराज ने वेला वा तेला किया हो अथवा पंद्रह दिन वा एक महीने का उपवास किया और पारणा के दिन भी आहार का लाभ न हुआ हो तो उस समय अग्नि की शिखा के समान उनके अंतरंग को जलाने वाली क्षुधा वेदना उत्पन्न होती है । उस समय उन मुनिराज को अपने हृदय में यह चितवन करना चाहिये कि मैंने परवश होकर जो भूख की वेदना सही है, मनुष्यगति में बंदीगृह में पड़कर भूख की वेदना सही है, जलचर, थलचर और नभचर के पशु पक्षियों की योनियों में जो मुख की वेदना सही है । तियंचगति में बांधे जाने था रोके जाने के कारण जो सूखकी वेदना