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मूलाचार प्रदीप]
( ४७८ )
[ द्वादश अधिकार अर्थ- यही समझकर विद्वानों को रत्नत्रयरूपी श्रेष्ठ रत्नों को पाकर प्रयल पूर्वक शीघ्र ही मोक्षलक्ष्मी को सिद्ध कर लेना चाहिये जिससे उनका बोधि का प्राप्त होना सफल हो जाय ॥३११८॥
पुनः दश धर्म पालन करने की प्रेरणाप्रागुतोवशवाधर्मः कर्तव्योधमकांक्षिभिः । भुक्तिमुक्तिप्रदोनित्यं क्षमादि लक्षणोत्तमः ।।३११६॥
अर्थ-धर्म की इच्छा करनेवाले पुरुषों को उत्तम, क्षमा, मार्दव आदि लक्षणों से सुशोभित तथा भुक्ति और मुक्ति दोनों को देनेवाला जो ऊपर कहा हुआ दश प्रकार का धर्म है वह सदा पालन करते रहना चाहिये ॥३११६॥
मोक्ष प्रदायिनी अनुक्षाओं के चिन्तवन की प्रेरणाअनुप्रेक्षा इमा सद्भिविशेष निरन्तरम् । वैराग्यवृद्धये ध्येया रागहान्य शिबंकराः ।।३१२०।।
अर्थ-विद्वान् पुरुषों को अपना वैराग्य बढ़ाने के लिये और रागद्वेष को नष्ट करने के लिये इन बारह अनुप्रेक्षात्रों का निरंतर चितवन करते रहना चाहिये । क्योंकि ये अनुप्रेक्षाएं अवश्य मोक्ष प्रदान करनेवाली हैं ।।३१२०॥
द्वादश-अनुप्रेक्षा की महिमा एवं उनके चिन्तवन का फल-- एताद्वादशभावनाः सुविमलास्तोर्थेश्वर सेविता प्रोक्तामध्यन हिताय परमा वैराग्यपद्धयं बुधाः । ये घ्यायन्ति सवाऽमलेस्थहृदये तेषांमुदाबद्धं तेसंवेगोत्रपरोविनश्यतितरांरागः शिवधीभवेत् ॥२१॥
___ अर्थ-ये बारह भावनाएं अत्यंत निर्मल हैं, तीर्थकर परमदेव भी इनका चितबन करते हैं और भव्य जीवों का हित करने और परम वैराग्य को बढ़ाने के लिये कही गई है। इसलिये जो विद्वान् अपने निर्मल हृदय में प्रसन्न होकर इन भावनामों का चितवन करते हैं उनका सर्वोत्कृष्ट संवेग बढ़ता है, राग नष्ट हो जाता है और मोक्षलक्ष्मी उनको प्राप्त हो जाती है ॥३१२१॥
उपसंहारात्मक अनुप्रंक्षाओं की महिमानिरुपमगुरगलानीर्मोक्षलक्ष्मीसखोरच जिनवरमुखमाताः सेविता: श्रीगणेशः। दुरितगिरिविघातेवनधाराः सदंव प्रभजतशियकामा भाषना द्वारशंता ॥३१२२॥
अर्थ- ये बारह भावनाएं अनुपम गुणों को खानि है, मोक्षलक्ष्मी को सखो है, भगवान जिनेन्द्रदेव के मुखसे उत्पन्न हुई है तथा गणधर देवों ने इनकी सेवा को है और पापरूपो पर्वों को चूर-चूर करने के लिये वन की धारा के समान है । अतएव मोल