________________
मूलाचार प्रदीप]
(४५७)
[ एकादश अधिकार परिहार विशुद्धि चारित्र कौन धारण कर सकता है ? निसमापुस्त्रिवाणामपरिस्फुटम् । अधस्तलेनवाष्टानां पादसेवी जितेन्द्रियः ।।२६७५।।
तोर्थकरस्य सङ्घयवीर्यकायवलांकितः । योनेकदेशभाषादिचतुरो नवपूर्वषित ..२६७६।। निष्प्रभावो महादुःखचर्या सप्तपसायुतः । परिहारविशुद्धि सः कर्तुमर्हति नापरः ॥२६७७।।
अर्थ-जिस मुनिकी आयु कम से कम तीस वर्ष की है, जो तीन वर्ष से ऊपर पाठ नौ वर्ष तक भगवान तीर्थंकर परमदेव के समीप चरण कमलों के समीप रह चुका हो, जो जितेन्द्रिय हो, श्रेष्ठ धैर्य, श्रेष्ठ पराक्रम, श्रेष्ठ बल और श्रेष्ठ शरीर से सुशोभित हो तो अनेक देश की भाषाओं के जानने में चतुर हो, ग्यारह अंग और नौ पूर्वका पाठी हो, प्रमाद रहित हो, जो अत्यन्त कठिन और दुःखमय चर्या करता हो और श्रेष्ठ तपश्चरण करता हो वही मुनि परिहार विशुद्धि नाम के चारित्र को धारण कर सकता है । जिसमें ये गुण नहीं है, वह परिहार विशुद्धि चारित्र को कभी धारण नहीं कर सकता ॥२६७५-२६७७॥
___परिहार विशुद्ध चारित्र का स्वरूप-- बर्जयित्वात्रिसंध्यांचानेकदेशविहारिणा । एकाकिना प्यनेनैवयोगिना बमवासिना ||२६७।। गम्यते पत्रयत्नेन गम्यूतिद्वयमन्वहम् । परिहारविशुध्यात्यंतच्चारित्रं विशुद्धिदम् ।।२६७६।।
अर्थ- परिहार विशुद्धि संयम को धारण करनेवाला मुनि सामायिक को तीनों संध्याओं को छोड़कर बाकी के समय में अकेला ही अनेक देशों में विहार करता है, वन में ही निवास करता है और प्रतिदिन प्रयत्न पूर्वक दो गन्यति अवश्य गमन करता है, वह आत्मा को अत्यन्त विशुद्ध करनेवाला परिहार विशुद्ध नामका चारित्र कहलाता है ।।२६७८.२६७६।।
सूक्ष्म साम्पराम नामक चरित्र का स्वरूएसूक्ष्मीकृतस्वलाभेन शुक्लध्यानविधायिना । क्षपकोपशमश्रेण्यारूढेनमोहघातिना ।।२६८०॥ सूक्ष्मात्मानुभावोयोऽप्रक्रियतेशुद्धचेतसा । तत्सूक्ष्मसाम्परायाख्यचारित्रलोभघातकम् ॥२६८१॥
अर्थ--जिन महा मुनि ने अपना संज्वलन लोभ कषाय अत्यंत सूक्ष्म कर लिया है, जो शुक्लध्यान धारण कर रहे हैं, जो क्षपकश्रेणी वा उपशम श्रेणी में विराजमान हैं, जो मोहनीय कर्मको घात करनेवाले हैं, ऐसे मुनिराज जो शुद्ध हृदय से सूक्ष्म प्रात्मा का अनुभव करते हैं उसको लोभ को घात करनेवाला सूक्ष्म सापराय नाम का चारित्र कहते हैं ॥२६८०-२६८१॥