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मूलाचार प्रदीप]
( ४६६)
[ द्वादश अधिकार से भरे हुए नरकों में जाता है और पुण्यकर्मके उदय से अकेला ही समस्त सुखों से भरे हुए स्वर्ग में जाता है । कर्मों से ठगा हुआ वह प्राणी अकेला ही दुःखी होता हुमा त्रस और स्थावरकायिक जीवों में परिभ्रमण करना है और अकेला ही मनुष्यगति में प्रार्य या मलेच्छ कुलों में उत्पन्न होता है । इसी प्रकार यह अकेला ही भव्यजीव अपने पौरुष से तपश्चरणरूपी तलवार के द्वारा मोह के साथ-साथ समस्त कर्मरूपी शत्रुओं को मार कर अनंतगुणों से भरे हर मोक्ष में जा विराजमान होता है ।।३०५०-३०५६॥
एकत्व भावना के चितवन की प्रेरणाइत्येवंपरिज्ञायस्वस्पसर्वनधोधनाः । एकत्वं भावयन्त्वात्मनोत्रकस्वपदाप्तये ।।३०५७।।
अर्थ---इसप्रकार सर्वत्र अपने अकेलेपन का परिज्ञान करके बुद्धिमानों को मोक्षरूप एकत्व पर प्राप्त करने के लिये इस एकत्व भावना का चितवन करते रहना चाहिये ।।३०५७॥
__ अन्यत्व अनुप्रेक्षा का स्वरूपयत्रदेहास्पृषाभूतोमतःसाक्षाथिल्लोक्यते । वही जडेतरस्तत्र किं स्वकोयः पृथग्जनः ।।३०५८।। जोधात्पचेन्द्रियाण्यत्रभिन्नरूपाणि तत्त्वतः । कर्मजात्यन्यवस्तूनि मनः कायवचांसि च ।।३०५६।। प्रन्यामातापिताप्यन्योन्याभार्यास्वजनोखिलः । पुश्राद्यन्यत्कुटंबं च स्याद्देहिनां चतुर्गतौ ।।३०६०।। प्रात्मानंदर्शनशामवत्तापिगुणभाजनम् । मुक्त्वा किचिन्न वस्तुस्यारस्वकोयभवनवये ।।३०६१॥
अर्थ- जहाँपर मरने पर यह शरीर से साक्षात् भिन्न दिखाई देता है फिर भला जड़ और चैतन्यमय अन्य पदार्थ वा कुटम्बी लोग जो साक्षात भिन्न दिखाई देते हैं वे इस आत्मा के फैसे हो सकते हैं। वास्तव में देखा जाय तो पांचों इन्द्रियां, मनवचन-काय तथा अन्य समस्त पदार्थ इस जीव से भिन्न हैं और अपने-अपने कर्मके उदय से प्राप्त हुए हैं। चारों गतियों में परिभ्रमण करते हुए इन जीवों के माता भी भिन्न हैं, पिता भी भिन्न हैं, स्त्री भी भिन्न हैं, समस्त कुटम्ब वर्ष भी भिन्न हैं और पुत्रादिक भी सब भिन्न हैं । इन तीनों लोकों में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप गुणों से सुशोभित अपने प्रात्माको छोड़कर बाकी का और कोई भी पवार्थ अपना नहीं है ।।३०५८-३०६१।।
__ अन्यत्व भावना के स्वरूप को जाननेवाले को क्या करना चाहिये - इत्यन्यायविदित्वास्वंदेहावेस्तत्त्ववेदिनः । पृथक्कृत्यांगतोऽम्यन्तरेध्यायन्तुस्वचिन्मयम् ।।३०६२।।