Book Title: Mulachar Pradip
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

View full book text
Previous | Next

Page 515
________________ मूलाचार प्रदीप] ( ४७० ) [ द्वादश अधिकार अर्थ-तन्नों को जानने वाले पुरुषों को इसप्रकार अपने मात्मा को शरीरादिक से भिन्न समझकर अपने उस शुद्ध चैतन्यस्वरूप प्रात्मा को अपने अंतरंग में हो शरीर से भिन्न समझते हुए उसका ध्यान करना चाहिये ॥३०६२॥ अशुचि भावना का स्वरूपदृश्यते यत्रदुर्गधेस्वदेहेप्यशुभाकरे । विश्वाशुचित्वबाहुल्यंभार्यावो तन्त्र कि शुचिः ।।३०६३।। एकान्सतोऽशुभं तीन नरकेंछेदनादिजम् । नारकांगेऽशुचित्वं च कृत्स्नदुःखनिबन्धनम् ।।३०६४।। देहछेद गमारारोपणाघशुभमुल्यणम् । तियंगतीतदंगावो चाशुचिस्वकृमिवाम् ।।३०६५।। बीभत्सेश्वभ्रमादृश्ये गर्भ बसन्तिदेहिमः । नवमाप्तान ततो जन्मसमन्तेऽशुधियोनिला ॥३०६६॥ बालत्वेऽशु चिमध्येप्रलोटन्ति यौवन नराः । सेवन्ते चाशुचिद्वारस्त्रीणांकामार्तपीडिताः ॥३०६७।। रक्तमांसाशुभाकोणं धर्मवास्तिसंचयम् । विश्वाशुभाकरीमतं मला पावभाजनम् ।।३०६८।। रोगोरगवित निश्रमशुभं स्वकलेवरम् । विद्धि त्वं दुःखयंस नर्थानां मूलमंजसा १३०६६।। स्मशुचिद्वार जाता ये भोगाश्चस्वान्यवयोः । कदर्थनाभवास्तेषामशुभवर्ण्यतेत्रकिम् ।।३०७० ।। अर्थ-जहांपर अनेक अशुभों को खानि और दुगंधमय अपने शरीर में हो समस्त अपवित्रता की बहुलता दिखाई देती है फिर भला स्त्रियों के शरीर में पवित्रता कसे आ सकती है। देखो नरक में नारकियों के शरीर में तीन अपवित्रता है, वह अपवित्रता स्वभाव से ही अशुभरूप है, छेदन भेदन से उत्पन्न होती है और अन्य समस्त दुःखों के कारणों से उत्पन्न होती है । तियंचगति में भी तियंचों का शरीर छेदा जाता है, अधिक भार से वह थक जाता है, अनेक रोग उत्पन्न हो जाते हैं, उसमें कीड़े पड़ जाते हैं, इसप्रकार तिर्यचों का शरीर भो अत्यन्त अपवित्र है । मनुष्यभव में यह प्राणी नौ महिने तक तो नरक के समान अत्यन्त वीभत्स गर्भ में निवास करता है और फिर अत्यन्त अपवित्र योनिके द्वारा जन्म लेता है । फिर बालकपन में अपवित्र स्थानों में ही लोटता फिरता है और यौवन अवस्था में काम से पीड़ित होकर स्त्रियों की महा अपवित्र योनि का सेवन करता है । हे जीव देख तेरा यह शरीर रुधिर मांस आदि अशुभ पदार्थों से भरा है, ऊपर चमड़े से ढका है, भीतर हड्डियों का ढेर भर रहा है, मल-मूत्र का भाजन है, समस्त अशुभ पदार्थों की खानि है, रोगरूपी सो का बिल है, अत्यन्त निथ है, अनेक दुःख वेनेवाला है और समस्त अनर्थोंको जड़ है। हे जीव तू अपने शरीर को ऐसा समझ । जो भोग स्त्रियों को अत्यन्त अपवित्र योनि से उत्पन्न हुए हैं तथा अपने और दूसरों के शरीर को संघदित करने से उत्पन्न होते हैं उन भोगोंको अपवित्रता

Loading...

Page Navigation
1 ... 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544