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द्वादशमोधिकारः
मंगलाचरण वोतरागान्मुनीन्द्रधाननुप्रेक्षार्थचिन्तकान् । सद्ध्यानध्वस्तकारीन् बन्येविश्वहितोखतान ।१८।।
अर्थ-जो मुनिराज वीतराग हैं, अनुप्रेक्षाओं का सदा चितवन करते रहते हैं, जिन्होंने अपने श्रेष्ठध्यान से कर्मरूपी शत्रुओं को नष्ट कर दिया है और जो समस्त संसार का हित करनेवाले हैं ऐसे मुनिराजों को मैं नमस्कार करता हूं ॥३०१८॥
. बारह अनुप्रेक्षाओं के कथन को प्रतिज्ञाप्रत्यहं या अनुप्रेक्षा द्वादशव मुनीश्वरः । चराग्यायसदाध्येयास्तावक्ष्येरागहानये ।।३.१६॥
अर्थ--मुनियों को अपना वैराग्य बढ़ाने के लिये बारह अनुप्रेक्षाओं का प्रतिदिन चितवन करना चाहिये । इसलिये रागद्वेष को नष्ट करने के लिये मैं उन अनुप्रेक्षाओं का निरूपण करता हूं ॥३०१६।।
द्वादश अनुप्रेक्षाओं के नाम निर्देशअनिस्याख्या ह्य नुप्रेक्षा द्वितीयाशरणाभिधा । संसारसंज्ञिकक स्वान्यत्वाशुच्यास्रवाह्वया ।३०२०।। संवरो निर्जरा लोको बोधिदुर्लभनामकः । धर्मरातामनुप्रेक्षा भाषिला जिनपुगवः ॥३०२१।।
अर्थ-अनित्य, प्रशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचि, मात्रय, संवर, निर्जरा, लोक बोधि दुर्लभ और धर्म ये बारह अनुप्रेक्षाएं भगवान जिनेन्द्र देव ने कही हैं ।।३०२०-३०२१॥
अनित्य अनुप्रेक्षा का स्वरूप निर्देशप्रनिस्मानिसमस्तानि वपुरायुः सुखानि च । इन्नचापसमानानि राज्यसौधधनानि च ॥३०२२।। योधर्म जरयाकान्तं स्वायुर्यममुनेस्थितम् । रोग: सम्मिपिता भोगाःसौख्यं दुःखपुरस्सरम् ॥२३॥ इन्द्रचकिवलेशादिपदानि शापवतामि न । इन्द्रियारोग्यसामर्थ्यवलायनोपमानि च ।।३०२४॥ अचलाभाश्चलानार्यः कुटम्बस्वविडम्बकम् । पुत्राः पाशोपमा गेह वासो बन्दिगृहोपमः ।३०२५॥
रूपं पुसा क्षणध्वंसि संपावञ्चललीवितम् । सम्पदोविपवोन्तेस्युभगुरंनिखिलं जगत् ॥३०२६।। माजन्मदिनमारभ्य जोवान् स्थान्तनयत्यहो। समयाय: सदापापीयमोखण्डप्रयापकः ॥३०२७१। परिकचिवम्यतेवस्तु सुन्दरं भुवननये । कालानसेनतत्सर्व भस्मीभावभवेद्विषः ॥३०२॥