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मूसाचार प्रदीप]
( ४६६)
[ द्वादश अधिकार मंत्रतंशेषधाबीमि व्यानिनिखिलान्यपि । सन्मुखेसति जन्तूनायमेऽकिञ्चित्कराणि च ।।३०३४॥
अर्थ- इसलिये बुद्धिमानों को इस लोक और परलोक दोनों लोकों में सर्वत्र समस्त आपत्तियों में अरहंत सिद्ध प्राचार्य उपाध्याय और साधु ही शरण हैं । अथवा उन्हीं पंच परमेष्टियों के द्वारा कहा हुआ तथा परलोक में भी इस जीव के साथ जाने वाला, सर्वोत्कृष्ट और यमराज को नाश करनेवाला ऐसा रत्नत्रय रूप धर्म ही सज्जनों को शरण होता है । जीव संसार से भयभीत हैं उनके लिये जन्ममृत्यु के दुःखों को दूर करनेवाला सर्वोत्कृष्ट यह जिनशासन ही शरणभूत है । जिस समय यमराज इन जीवों के सन्मुख होता है, उस समय मंत्र, तंत्र और औषधि आदि सब न कुछ करनेवाली व्यर्थ हो जाती हैं ।।३०३१-३०३४॥
मृत्युरूपी यमराज से कोई नहीं बचा सकतामीयमानोयमेनांगोवराकः स्वासयंप्रति । इन्द्रचकिखगेशाध : क्षणं प्रातुन शक्यते ॥३०३५।। यवेन्द्राद्यायमेनावः पाल्यन्सेस्वपक्षालास् । कस्तोखरतेन्योऽस्मात्सर्वजीवनयंकरात् ।। ३०३६।।
अर्थ-जिस समय यह यमराज इस दुःखिया जीव को अपने घर ले जाता है उस समय इन्द्र चक्रवती विद्याधर प्रादि कोई भी क्षणभरके लिये भी नहीं बचा सकता। अरे जब यह यमराज इन्द्र को भी जबर्दस्ती अपने पैरों के नीचे डाल लेता है तो फिर समस्त जीवों को क्षय करनेवाले यमराज से और कौन बचा सकता है ॥३०३५३०३६॥
पच परमेष्टी की शरण लेने की प्रेरणाविज्ञायेतिजिनेन्द्रोक्तधर्मस्पपरमेष्ठिनाम् । नित्यं मोक्षं यमादिभ्योवजन्तु शरणं बुषाः ।।३०३७।।
अर्थ-यही समझकर विद्वान पुरुषों को भगवान जिनेन्द्र देव के कहे हुये धर्म की शरण लेनी चाहिये, पांचों परमेष्ठियों को शरण लेनी चाहिये और यम नियम पालन कर सदा रहनेवाली मोक्ष प्राप्त कर लेनी चाहिये ॥३०३७॥
५ परावर्तन रूप संसारानुक्षा का स्वरूपद्रव्यक्षेत्राभिधे कालभवभावाह्वयेऽशुभे । संसारे दुःखसम्पूर्ण भ्रमन्ति कर्मरणागिनः ।।३०३८।। कर्मनोकर्मपर्याप्तिभिग होता न पुद्गला: । न मुक्ता बहशो जीवयं ते न स्युजंगद्गहे ।।३०३६॥ अधोमभ्यो लोकेषुधभन्तोनिखिलोगिनः । पत्रोत्पन्नामृतानेव स प्रदेशो न विद्यते ।।३०४०।। चस्मपिण्यवसपियो हिनः कर्मणा धुताः । येषु जातामृताहो न नस्युस्तेप्तमथाभुवि ॥३०४१।।