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मूलाचार प्रदीप ]
( ४५१ )
[एकादश अधिकार आचार्यों के द्वारा तप कहलाता है, यह तप उत्कृष्ट धर्म है और श्रेष्ठ धर्म का कारण है । पहले इस तप के बारह भेद विस्तार के साथ कह चुके हैं । यह सब तप संसार को नाश करनेवाला है, इसलिये धर्मात्मा पुरुषों को श्रेष्ठ धर्म धारण करना चाहिये । ॥२९८६-२६६०॥
त्याग धर्म का स्वरूप एवं ज्ञान दान का निर्देशअन्तर्वाह्योपधीनांयन्मूत्यिजनमंजसा। मनोवाक्काययोगः स त्यागउत्तमधर्मदः ।।२६६१॥ तयाज्ञानहर जानवानसिद्धान्तगोचरम् । शब्दार्थोमयसम्पूर्ण यत्सत्पात्राय दीयते ॥२६॥२॥
अर्थ-मन-वचन-काप के तीनों योगों से अंतरंग और बाह्य सब तरह के परिग्रहों में मूर्छा वा ममत्व का त्याग कर देना त्याग कहलाता है । यह त्याग सबसे उत्तम धर्म को देनेवाला है। अज्ञान को हरण करनेवाला दूसरा त्याग ज्ञानदान है । यह शानदान सिद्धांत शास्त्रके गोचर है अर्थात् सिद्धांत शास्त्रोंका पढ़ाना ज्ञानवान है । सिद्धांत शास्त्र के शब्द अर्थ वा शब्द अर्थ दोनों जो श्रेष्ठ पात्रों के लिये दिए जाते हैं उसको ज्ञानदान कहते हैं ॥२६६१.२६६२॥
अभय दान का स्वरूप एवं ज्ञान दान एवं अभय दान का फलप्रभयास्य महदानं भयभीताखिलात्मनाम् । स्याग: स उच्यते सद्भिः केवलज्ञानमेत्रवः ॥२६६३।। ज्ञानदानेन लम्यन्ते श्रुतशानादपोखिलाः । बुधेश्यनिर्भयस्थानं दयादानेननिश्चितम् ।।२९६४॥
अर्थ-तीसरा त्याग अभयदान है, भयसे भयभीत हुए समस्त जीवों को अभय दान देना अभय दान है, यह सब दानों में उत्तम दान है और केवलज्ञान रूपी नेत्रों को देनेवाला है ऐसा श्रेष्ठ पुरुषों ने कहा है । विद्वान पुरुषों को ज्ञानदान देने से पूर्ण श्रुतज्ञान की प्राप्ति होती है तथा दयावान देने से मोक्षरूप निर्भय स्थान की प्राप्ति होना अवश्य ही निश्चित है ।।२६६३-२६६४॥
परिग्नह त्याग से लाभसंगत्यागेन जायेत चित्तशुद्धिः परासताम् । तथाध्यान प्रशस्तं च ध्यानाकर्ममयस्ततः ।।२६९५॥ केवलज्ञानलक्ष्मीश्चततोमुक्तिवस्तया । अनन्तमुझमात्मोरपंसिद्धश्रियागुणःसमम् ||२९६६॥
अर्थ-परिग्रहों का त्याग करने से सज्जनों का मन अत्यन्त शुद्ध हो जाता है, मन के शुद्ध होने से ध्यान की प्राप्ति होती है, ध्यान से कर्मों का भय होता है, कर्मों का क्षय होने से केवलज्ञान लक्ष्मी प्राप्त होती है, केवलज्ञान लक्ष्मी प्राप्त होने से मुक्ति