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मूलाचार प्रदीप ]
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[ एकादश अधिकार अर्थ- इसप्रकार कोमल परिणामों का फल शुभ और कठिन परिणामों का फल अशुभ समझकर कठिन परिणामों का त्याग कर देना चाहिये और उन मुनियों को धर्म तथा मोक्ष की लक्ष्मी और सुख बढ़ाने के लिये प्रयत्नपूर्वक समस्त जीवों की कृपा से परिपूर्ण ऐसा मार्दव धर्म धारण करना चाहिये ।।२९४०-२६४१॥
पुनः जिनेन्द्रदेव कथित आर्जव धर्म का स्वरूप निर्देशहृदियस्संस्थितकार्यव्र यते वचसा च तत् । वपुषाचर्यतेतथ्यमबुद्धिभिरंजसा ।।२६४२।। एतवार्जवमत्यर्थमुत्तमं धमलक्षरणाम् । प्रणोतं धर्मनाथेन सतां धर्मकुलालयम् ॥२६४३॥
अर्थ-अपनी सरल बुद्धि को धारण कर अपने मनमें जो कार्य जिस रूप से चितवन किया है, उसको उसी रूप से कहना और शरीर के द्वारा उसी रूप से करना, उत्तम प्रार्जव धर्म कहलाता है । धर्मको परंपरा का घर ऐसा यह आर्जय धर्मका लक्षण सज्जनों के लिये भगवान जिनेन्द्रदेव ने कहा है ॥२६४२-२६४३॥
आर्जव धर्म की महिमा एवं उसका फलपुमा चार्जवभावेन जायन्ते निर्मला गुणाः । त्रिजमत्सुखसाराणि तीर्थशादिविभूतयः ॥२६४४॥
मिरणामृजुवित्तेनोत्तमो धर्मोभवान्तकः । साक्षान्मुक्तिबधूवाताभवेत्सर्वार्थसाधकः ॥२६४५॥ प्रार्या प्रार्जवयोगेनह्यवसापिभोगिमः । यान्तिदेवालयं नूनं ? मतोस्याप्यमातृकः ॥२६४६।।
अर्थ- इस आर्जव धर्म के निमित्त से मनुष्यों को अत्यन्त निर्मल गुरप प्राप्त होते हैं, तीनों जगत के सारभूत सुख प्राप्त होते हैं और तीर्थकरादिफ की विभूतियां प्राप्त होती हैं । सरल हृदय को धारण करने से धर्मात्माओं को, संसार को नाश करने वाला साक्षात् मोक्षस्त्री को देनेवाला और समस्त पुरुषार्थों को सिद्ध करनेवाला उत्तम धर्म प्राप्त होता है । देखो सदा भोगोपभोग सेवन करनेवाले और प्रयती ऐसे भोग भूमिया भी मन-वचन-कायको सरल रखने के कारण स्वर्ग में ही जाकर जन्म लेते हैं । ॥२६४४-२६४६।।
___किमके ध्यानादि तप निष्फल हैकौदिल्यपरिणाममा कुटिलामाग्लिदुर्गतिम् । प्रहोपामार्णनंकृत्यामा रमकरादिकाः ॥२६४७। फूटायमियष्पमिफलस्वप्नराज्यवत् । विषमिश्रितबुग्धं वा तपोध्यामादिपियाम् ॥२६४८।।
अर्प-तथा बिल्ली, मगर आदि भायाचारी कुटिल जीव अपने कुटिल परिणामों के ही कारण अनेक पापों को उत्पन्न कर दुर्गति में जाकर जन्म लेते हैं। जो