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मूलाचार प्रदोप]
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इल दाग नाकार इत्यादिदोषकर्तारं क्रोधशत्रु तपोधनाः । क्षमाखड्नेनमोक्षायदुर्जयनन्तुस्तितः ।।२६२७।।
अर्थ-इस संसार में क्रोध के समान मनुष्यों का अन्य कोई शत्रु नहीं है । क्योंकि यह क्रोध इस लोक में भी समस्त अनर्थों को करनेवाला और अशुभ पा पाप उत्पन्न करनेवाला है और परलोकमें भी सातवें नरक तक पहुंचाने वाला है । इसप्रकार अनेक दोष उत्पन्न करनेवाले और अत्यन्त दुर्जय ऐसे क्रोधरूप शत्र को तपस्वी लोग मोक्ष प्राप्त करने के लिये अपनी शक्ति से क्षमारूप तलवार के द्वारा नाश कर डालते हैं ॥२६२६-२६२७॥
क्षमा की महिमा और किसने इसे धारण करके केवल ज्ञान को प्राप्त कियाक्षमामुक्तिसखी प्रोता जिनमुक्तिवशीकरा। कल्पवल्लीममा नरा संकल्पितसुखप्रदा ।।२९२८।।
क्षमा रक्षापरापुंसां शत्रुभ्यः शममातृकाः । भमा धर्मसुरत्नानां खनीलाराशुभकरा ॥२६२६।। पार्वेशसंजयन्लास्यशिवभूत्यादियोगिमः । क्षमयात्राधिसम्जित्वाबरपसगनिवरिजान् ।।२६३०॥ केश्लासगमंप्राप्यत्रिजगभव्यपूजनम् । लोकाप्रशिखरजग्मुर्वहवः शर्मसागरम् ।।२६३१।।
अर्थ-भगवान जिनेन्द्रदेव ने इस क्षमा को, मोक्ष को वश करनेवाली ऐसी मोक्ष की सखी बतलाई है । तथा यही क्षमा मनुष्यों के लिये इच्छानुसार सुख देनेवाली कल्पलता के समान है। मनुष्यों को शत्रुओं से रक्षा करनेवाली यह क्षमा ही सबसे उत्तम है । यह क्षमा उपशम की माता है, सबमें सारभूत है, शुभ करनेवाली है और धर्मरूप रत्नों को खानि है । देखो भगवान पार्श्वनाथ स्वामी, संजयंत मुनि और शिवभूत आदि कितने ही मुनि इस क्षमा को धारण कर ही शत्रुओं से उत्पन्न अनेक उपसगों को जीतकर शीघ्र ही केवलज्ञान को प्राप्त हुए हैं तथा तीनों लोकों के भन्य जीवों के द्वारा पूजे जाकर अनंत सुखों के समुद्र ऐसे लोक शिखर पर जा विराजमान हुए हैं। ॥२६२८-२६३३॥
सर्वश्रेष्ठ गुणों का समूह रूप क्षमा को धारण करने की प्रेरणा-- आमासम सपोनास्तिक्षमातुल्यं न सव्रतम् । क्षमामं न हितकिंचित्क्षमामिभं न जीवितम् ।।३।। इत्यावीपरमान जारवा मायाः गुणसंचयान । फुर्धन्तुसुधियो नित्यं क्षमा कृस्नप्रयत्नतः ॥३३॥
अर्थ-इस संसार में क्षमा के समान अन्य कोई तप नहीं है, क्षमा के समान . मन्य कोई श्रेष्ठ व्रत नहीं है, क्षमा के समान कोई हित नहीं है और क्षमा के समान
कोई जीवन नहीं है। इसप्रकार इस क्षमा के सर्वोत्कृष्ट गुणों के समूह को समझकर