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मूलाचार प्रदीप]
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[एकादश अधिकार तो मेरा सबसे बढ़कर मित्र है। यदि यह प्राणी मुझे मारकर पाप कर्मों से मुझे नहीं छड़ाता तो मैं उन पापों से कैसे छटता? इसलिये कहना चाहिये कि यह तो मेरा सबसे अच्छा हित करनेवाला है । अरे जो पुरुष कारागार के समान इस शरीर से मुझे शीघ्र ही छड़ाकर मुझे स्वर्गादिक में पहुंचा देता है, यह मेरा शत्रु कैसे हो सकता है उसे तो मैं अपना मित्र समझता हूं ॥२६१३-२६१५॥
पुन: उत्तम क्षमा धारण करने की प्रेरणाइस्यादिसद्विचारोघः प्राणनाशेपि साधुना । क्षमका सर्वथा कार्या कोपः कार्यो न जातुधित् ।।१६।।
अर्थ--इसप्रकार अनेक तरह से अपने श्रेष्ठ विचार धारण कर प्राण नाश होनेपर भी मुनिराज को एक उत्तम क्षमा ही धारण करनी चाहिये । उन मुनिराज को क्रोध कभी नहीं करना चाहिए ॥२६१६।।
मुनिराज 'चन्दन के वृक्ष एवं पृथ्वी के समान अधिकारी और अचल होते हैंछेवनैः कसनेहि विक्रिोयातिचन्दनम् । न यथान तथा योगी सर्वोपद्रवराशिभिः ॥२६१७।। कम्पते न यथा पृथ्वोस्खननज्वालनादिभिः । उपसर्गस्तथाविश्वानस्थोषीरसंपमी ।।२६१८।।
अर्थ-जिस प्रकार चंदन को छेदने से, काटने से वा जलाने से घंदन में कोई विकार उत्पन्न नहीं होता उसी प्रकार समस्त उपद्रवों के समूह आ जानेपर भी योगी के हुक्ष्य में कभी विकार उत्पन्न नहीं होता । जिसप्रकार पृथ्वी को खोदने वा जलाने से पृथ्वी कभी कंपायमान नहीं होती उसी प्रकार समस्त उपसगों के प्रा जानेपर भी ध्यान में स्थिर हुए धीरवीर संयमी अपने ध्यान से कभी चलायमान नहीं होते हैं। ।।२९१७-२६१८॥
__संकड़ों उपसों के आनेपर भी साधु विकृत नहीं होते हैंक्वचिदम्बामतादीनिविषायन्ते विधेशात् । नोपसर्गेश्यसाधूनांचितानन्दामृतामि भोः ॥२६१६।।
अर्थ---कभी कभी कोंके निमित्त से वा अन्य किसी कारण से दूध वा अमृत आदि उत्तम पदार्थ भी विवरूप हो जाते हैं, परंतु साधुओं के हृदय से उत्पन्न हुआ प्रानंदामृत सैकड़ों उपसर्गों के प्रा जानेपर भी कभी विषरूप चा विकाररूप नहीं होता। ॥२६१६॥
क्रोध की निंदा एवं क्षमा की महिमा का वर्णनन कोपसदृशोवन्हिविश्वप्रम्बालमसमः । प्रमृतं न क्षमातुल्यंत्रिजयात्रीणमझमम ॥२६२०॥