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पूलाचार प्रदीप ]
( ४४७)
[ एकादश अधिकार क्रोध करने से पूर्व साधना भी व्यर्थ हो जाती है..कोषहालाहलकान्तं निविधीकतु मनमः । अहं यदि कथं क्रोधविष पिवामिलाम्प्रतम् ॥२६०८॥ अभ्यस्तो यः शमः पूर्व बहुकष्टमयाधुना। वैफल्यं तस्य जायेत यवि कोपं करोम्यतः ।।२६०६।।
अर्थ--यदि मैं क्रोधरूपी महा विषसे प्रांत हुए इस पुरुष को निर्विष करने में समर्थ नहीं हूं अर्थात् यदि मैं इसका क्रोधरूपी विष दूर नहीं कर सकता हूं तो फिर मैं इस समय क्रोधरूपी विष का पान क्यों करू । यदि मैं इस समय क्रोध करता हूं तो मैंने पहले अनेक कष्ट सहन कर जो उपशम रूप (अत्यंत शांत) परिणामों का अभ्यास किया है वह सब व्यर्थ हो जाता है ॥२६०४-२६०६॥
स्थिरचित्त से उपद्रव सहने की प्रेरणाइत्याविचिन्तनश्चित्तस्थिरीकृत्याशुसाधुना । सोढव्य निखिललोके ताडन दुर्जनोद्भवम् ।।२६१०॥
अर्थ- इसप्रकार चितवन कर उन मुनिराज को अपना चित्त स्थिर कर लेना चाहिये और इस लोक में सुधटी के द्वारा उत्पन्न हुए मारण लाइन मावि सब उपद्रव सहन कर लेने चाहिये ॥२६१०।।
प्राण हरण करने के अवसर पर भी मुनिराज क्षमा धारण करते हैं --- यदि कश्चियऋषेःप्राणान् गृह्णातिवनमायकः । ऋषिणेवं तवा चिन्तनोधकोपानि नोरवम् ॥ प्रादयं ममप्राणान नच धर्म शिवप्रदम् । अस्माद्वालादि मे लाभो महानिर्धर्मवद्धनात् ॥१२॥
अर्थ- यदि कोई नरक को जाने वाला दुष्ट किसी मुनि के प्राण ही हरण करता हो तो उन मुनिराज को उस समय क्रोधरूपी अग्नि को शांत करने के लिये मेघ के समान इसप्रकार का चितवन करना चाहिये, यह मूर्ख मेरे प्राणों को लेता है, मोक्ष देने वाले मेरे धर्म को तो नहीं लेता इसलिये इस मूर्ख से मेरी कोई हानि नहीं है, किंतु मेरे धर्म को वृद्धि होने से मेरा लाभ हो है ।।२६११-२६१२।।
मुनिराज मारने वाले को भी मित्र एवं हितु मानते हैंजरा अर्जरितकायहत्वादिष्यगुणाकरम् । वपुरते वषा में कथं स न सुहहरः ।।२९१३।। बंधाच: पापकर्मम्योयायं मां न मावयेत् । तवामोक्षः कुतस्तेभ्योमेमाविषहितकरः ॥२६१४।। कारागारनिभात्कायान्मोचयित्वाशुमा हि यः । स्वर्गावोस्थापयत्येव कथं स शत्रुरुच्यते ॥२६१५॥
अर्थ-और बेखो यह प्राणी मुझे मारकर जरासे जर्जरित हए मेरे शरीर को नाश करता है और अनेक गुणों को खानि ऐसा दिव्य शरीर मुझे देता है इसलिये यह