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मूलाधार प्रदीप]
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[एकादश अधिकार प्राधाक्षमोसमा श्रेष्ठं मायावोत्तमम् । सत्यं माधमहान संयमस्तपस्त्यागससमः ॥२८८७॥ प्राचिन्यं परं ब्रह्मवर्षसल्समरणान्यपि ! इमानि धर्ममूलानि श्रमणानां दशव हि ।।२८८८।।
अर्थ-अथानतर--अब आगे दश प्रकार के धर्मों का स्वरूप कहते हैं । ये वश प्रकार के धर्म मुनियों के लिये सुख के समुद्र हैं और मोक्षरूपी नगर में जाने के लिये मार्ग का साक्षात् पाभेय है, मार्ग व्यय है । उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम आर्जय, उत्तम शौच, उत्तम सत्य, उत्तम संयम, उत्तम तप, उत्तम त्याग, उत्तम प्राकि. चन्य, उत्तम ब्रह्मचर्य यह मुनियों के दश धर्म हैं और समस्त धर्मोका मूल है ॥२८८६२८८८।।
उत्तम क्षमा धर्म का स्वरूप निर्देशमिथ्पादकशवदुष्टाछ कृसत्यत्युपाये। अपकीतिभयादिभ्यः सहोताउमाविकम् ।।२८।। संयतैरिह लोकार्थं न परमार्थसिद्धये । यत्सा क्षमोच्यते सद्भिः सामान्यपुरुषाश्रिता ।।२८६०।।
अर्थ-यदि कोई मिथ्यादृष्टि, शत्र वा दुष्ट लोग किसी मुनि पर घोर उपद्रव करें, उनकी अपकीर्ति करें, उन्हें भय दिखलावे वा ताड़नादिक करें तो जो मुनि केवल इस लोक के लिये उसको सहन करते हैं, परलोक के लिय सहन नहीं करते उसको सज्जन पुरुष सामान्य पुरुषों के आश्रित रहनेवाली क्षमा कहते हैं ॥२८८६-२८६०।।
किसके उत्तम क्षमा होती हैप्रास्यवृष्टि विषवर्षादीनांसमर्थवसत्यपि । केवलंकर्मनाशायसाते को महात्मभिः ॥२८१॥ प्राणनाशकरोघोरोपसगों दुर्जनः कृतः । उत्तमाल्याक्षसासोक्ताधर्मरस्नसनीपरा । २८६२।।
अर्थ-परंतु जो मुनि उसी विष ऋद्धि दृष्टि विष ऋद्धि प्रादि अनेक ऋद्धियों के कारण समर्थ होनेपर भी केवल कर्मों को नाश करने के लिये दुष्टों के द्वारा किये हुये प्राणों को नाश करनेवाले घोर उपसर्गों को भी सहन करते हैं, उन महात्मानों के धर्मरत्न की स्वानि ऐसी सर्वोत्तम उत्तम क्षमा होती है ।।२८६१-२८६२॥
उत्तम क्षमा धारण करने की प्रेरणास्वदोषगुणाचिन्ता प्रत्यक्षाविविचिम्तनः। विधार चतुरैः कार्यासर्वत्रका समापरा ॥२८६३॥
अर्थ-अपने गुण दोषों को चितवन कर अथवा प्रत्यक्ष परोक्ष के गुण दोषों को चितवन कर विचारशील चतुर पुरुषों को सर्वत्र एक उत्तम क्षमा हो धारण करनी चाहिये ।।२८६३॥
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