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मूलाचार प्रदीप ]
( ४२७)
[ दशम अधिकार किस प्रकार के चितवन से क्षपक संस्तर की वेदना को सहन करते हैंमहोजसस्थलाकाशेकटकाविभवाभधि । प्राग्भवे वसता भक्तामहतीवेदनामया | २७६१॥ वनकंटकसंकीर्णश्व परवशेम भोः। स दुःखंषसितंपापच्चिरकालमयविधेः ।।२७८२॥ कियन्मात्रा ततोत्रेयवेवनासंस्तरादिजा। विचित्येति सदुःखंसहतेसंस्तरोलपम् ।।२७८३॥
अर्थ-उसको चितवन करना चाहिये कि देखो पहले भवों में मैंने जल, स्थल, प्राकाश और पर्वतों पर निवास किया है तथा उनसे उत्पन्न हुई अनेक महा वेदनाएं मैंने सहन की है । कर्म के परवश हुए मैंने पापकर्म के उदय से वन्नमय कांटों से भरे हुए नरक में चिरकाल तक निवास किया है और वहांपर अनेक महा दुःख भोगे हैं। फिर भला यह कठिन संस्तर से उत्पन्न हुई वेदना कितनी है, यही चितवन कर वह क्षपक कठिन संस्तर से उत्पन्न हुए समस्त दुःखों को सहन करता है ॥२७८१-२७८३।।
क्षाक क्या करके मनको निराकुल बनाता हैइत्यादिसद्विचाराचं निधर्मशतः परः । परमेष्ठिपबध्यानरनुप्रेक्षापंचिन्सनैः ॥२७६४।। प्रागमामृतपानरम तर्पयित्वा निजमनः । स्वस्थं कुर्यात्स तत्त्वज्ञः स्वात्मध्यानसमाधये ।।२७५५।।
अर्थ-तत्वों को जाननेवाला वह क्षपक अपने आत्म ध्यान और समाधि के लिये ऊपर कहे अनुसार श्रेष्ठ विचारों को धारण कर, सैकड़ों उत्कृष्ट धर्मध्यानों को धारण कर, परमेष्ठी के चरण कमलों का ध्यान कर अथवा परमेष्ठी के वाचक पदोंका ध्यान कर या अनुप्रेक्षाओं का चितवन कर अथवा आगमरूपी अमृत का पान कर अपने मनको संतुष्ट करता है और उसको सब तरह से निराकुल बना लेता है ॥२७८४२७८५॥
निराकुल मन वाला क्षपक किसका ध्यान करता हैनिर्विकल्पमनाः ध्यानी चिदानन्दमयंपरम् । च्यातुमारमतेचित्ते परमात्मानमंजसा ॥२७८६॥
अर्थ- जिसका मन सब तरह के संकल्प विकल्पों से रहित है, ऐसा ध्यान करनेवाला वह क्षपक शीघ्र ही अपने मनमें चिदानंदमय सर्वोत्कृष्ट परमात्मा का ध्यान करना प्रारम्भ करता है ॥२७८६॥
अभ्यन्तर योग धारण करने की प्रेरणाअस्मिन्नवसरे योगी कोणवेहपराक्रमः । बाह्ययोगविधातु सोऽशक्तः सन्नपि धोधनः ।।२७८७।। योगमन्यन्सरं सारं सर्वाराधनपूर्वकम् । एकचिलेममुक्त्यर्थं विषसनिरन्तरम ॥२७॥